आपको स्मरण होगा, 2018 का वर्ष जब हम 2 दशकों तक डिजिटल दुनिया में आपके साथ रिश्ते को और प्रगाढ़ करते हुए दैनिक समाचार पत्र की जिम्मेदारी में आये थे, उसके पीछे भी संवेदनाओं के ख़त्म होने की एक कहानी थी.

जब प्रदेश की राजधानी में एक भिखारी ठण्ड से मर जाता है और उसकी खबर लेना तो दूर उसकी लाश 15 घंटे खुले में पड़ी रही थी. दुःख यह है कि आज भी हम सभी, उससे इतर नहीं हैं, बीते दिनों रिकॉर्ड तोड़ती बारिश ने एक दिव्यांग की जान ले ली, जिसकी लाश ओंधे मुंह, उलटी दिनभर पड़ी रही जिसे लगभग सभी टीवी चैनल, अख़बारों ने दिखाया परन्तु हमने कुछ नहीं सीखा.

यहाँ पर स्थानीय उपलब्ध नागरिक और शासन को क्या करना चाहिए था यह तो सिखाने की बात नहीं है.

इन्टरनेट ने साझा करना सिखाया पर बिना मेहनत वाला साझा करना सिखाया जिसमें सिर्फ हमें कुछ पोस्ट करना है या कुछ फॉरवर्ड करना है. हमारी जिन्दगी में नवीन शिक्षा ने व्यक्तिगत, निजता को समेटना तो सिखाया परन्तु सार्वजनिक शुचिता में हमारी भागीदारी पर कोई बात नहीं की और यदि कहीं की गई तो उसे हमने भाव नहीं दिया.

जीवन को मैं और मेरे तक सीमित करते अभिभावकों ने जीवन इतना छोटा कर दिया कि हमें समाज शब्द के मायने कभी समझ नहीं आते हैं.

या यूँ कहें सभी से चाहते पर किसी को नहीं चाहते.

आज भौतिक वाद इतना हावी है, हमारे जीव संस्कार इतने क्षुद्र हो गए हैं कि हम सिर्फ़ अपना और अपना चाहते हैं. हाल ही में एक शिक्षिका ने किसी को मदद के रूप में 2.5 लाख रूपये उधार दिए का तकाज़ा करने पर उधार दबाये बैठे व्यक्ति ने उस शिक्षिका को सरे आम राह में जिन्दा जला दिया उसकी छोटी सी बेटी के सामने. और सुधि नहीं बेसुध राहगीर वीडियो बनाते रहे बचने प्रयास तक नहीं किया.  हम संस्कारों में कहाँ जा रहे हैं. हिंसा हम पर हावी हो गई है.

हमारी हिंसा को विधि विधान, कानून किसी का डर नहीं. क्योंकि हमें परिवार, समाज, राष्ट्र कुछ नहीं पढ़ाया गया. यदि शिक्षा घर से, शाला तक स्तरीय हो तो हम हिंसा के बीजों पर बचपन में ही मट्ठा पिला देते.

दूसरा हमारे आदर्श नेता, अभिनेता यदि अपनी जिम्मेदारी समझें. हिंसा से स्वयं बचें और फिल्मों और वास्तविक जीवन में हिंसा को न्यूनतम स्थान देने की वकालत करें.

फिल्मों के सेंसर बोर्ड को भी जिम्मेदारी लेनी होगी कि यदि सड़क पर होने वाली घटनाओं से हमारे आपके परिवार भी अछूते नहीं रहेंगे अगर हमने अपनी भूमिका सही निर्वहन नहीं की.

हिंसा को शब्दों में, भाव में, कृत्य में कहीं भी स्थान नहीं मिलना चाहिए.

आजकल हम कुछ भी बोलकर सोचते हैं हमने कुछ नहीं किया. हर शब्द का, हर आवाज का अस्तित्व है और वह कार्य करती है. यदि हमारे शब्द, हमारी गुस्सा, हमारे अस्तित्व को उपर दिखने के लिए है, कहीं दूसरे से आपकी इच्छित कुत्सित कार्य को करवाने के लिए है तो समझ लें. वह कार्य निष्पादन का सम्पूर्ण वहन आप पर ही आने वाला है.

यह देश काल सब देख रहा है उसने इतिहास को देखा है जिन्होंने सर उठायें, आज उनके नाम लेने वाले भी नहीं बचे हैं. फिर हम क्यों समझते है कि इस देश काल हमें क्षमा कर देगा.

स्मरण रहे, देश काल, कुत्सित मानसिकताओं वाली विचारधारा और उसे जिन्दा रखने वाले जीव जीवन्तरों को न सिर्फ ख़त्म कर देता है, अपितु इतिहास में भी स्थान नहीं देता.

 

कम से कम ऐसा तो जीना ही होगा कि देशकाल भले इतिहास हमारे नाम के स्वर्णिम अध्याय न लिखें परन्तु इतिहास हमसे गौरवान्वित महसूस करे. काफ़ी है.

-Veerji ITDC News