आज समय, बाजार और सिर्फ बाज़ार का आ गया है. एक खाद्य जीवन चक्र होता है, जिसके पिरेमिड शीर्ष पर मनुष्य आता है क्योंकि वह पशु और पादप अर्थात शेष सभी उसके आहार के साधन है. यह कभी नहीं पता था कि जीवन चक्र का यह पिरेमिड, उद्यम और उद्योग, व्यापार जगत में भी लागू हो जायेगा.

एक समय था जब देश की अर्थ नीति में बाजार के सभी वर्गों के हित को देखा जाता था, लघु उद्योग, कुटीर उद्योग, छोटे, मंझोले कारोबारियों के हित बड़े व्यापार संस्थानों के हितों में स्वाहा नहीं किया जाता था.

पर इस शताब्दी में छोटे, मंझोले व्यापारिक वर्ग के हितों को ज्यादा नहीं समझा गया.

ऐसी नीति, समयविशेष  के साथ सरकारों ने घोषित नहीं की जिससे वह संभल सकें और पिरेमिड के शीर्ष पर बैठे उच्च व्यापार उन्हें निगल न सकें.

आज सुपर स्टोर, सुपर बाज़ार, मार्ट, मॉल ने हमारे खुदरा व्यापारी, छोटा व्यापारी को पूरी तरह ख़त्म करने के इरादे से बाजार को घेर चुके हैं.

सत्ताधीशों को नहीं मालूम वह कब तक सत्ता में हैं परन्तु यदि वह सर्व जन हिताय सर्व जन सुखाय को नहीं समझ पाए तो कब हमारा बाजार का तरीका, सभ्य विक्रय तंत्र से बाहर आ जायेगा और व्यापारिक अव्यवस्था का भूचाल आ जायेगा, पता भी नहीं चलेगा.

सरकारों को नहीं पता, न ही इसका कोई रोडमेप कि कैसे हम अपने नागरिकों के छोटे रोजगार, छोटे दुकानदार, छोटे बाजारों के हितों की रक्षा कर पाएंगे.

हम दुनिया की पांचवी अर्थ व्यवस्था या शक्ति हैं और हमें यह भी समझना होगा कि पिछले दशक में ही सिर्फ जीडीपी सकल घरेलु उत्पाद मूल्य बढ़ा है. इसी दौरान हमने प्रति व्यक्ति आय में निरंतर कमी को भी देखा है.

19वीं सदी के आरम्भ में इस गरीबी को ब्रिटेन ने देखा था आज उस स्थिति को हम पकड़ रहे हैं.

क्या यही है विकास? हमें समझना होगा.

हम यूनिकॉर्न से खुश हो जाते हैं कि हमारे स्टार्ट अप अच्छा कर रहे हैं. यह नहीं कोई बताता कि पिछले वर्ष कितने स्टार्ट अप दम तोड़ गए.

 

हमें खुशियों के इंडेक्स से, जीवन आवश्यकताओं की पूर्ति, शिक्षण और स्वास्थ्य के आधार पर उन्नति को देखना होगा जो ह्युमन डेवेलपमेंट इंडेक्स को मान सकते हैं जिसमें हम 190 देशों में से 122 पर ठहरते हैं.

देश में रोटी ज्यादा बिकी इससे आप उन्नति की गणना नहीं कर सकते, सरकारों की सफलता नहीं नाप सकते हैं.

यह नाप सही नहीं है, जब आप ब्रिटेन जिसकी आबादी 7 करोड़ जो आपके एक प्रदेश की हो जाती है उसके आधार पर शोर कर रहे हो यह गलत है. ज्यादा लोग ज्यादा बड़ा बाजार, इसमें कौनसी बड़ी बात.

जिस देश में 140 करोड़ लोगों में से आधी से ज्यादा आबादी यानि 80 करोड़ लोग फ्री राशन से जिन्दा हैं.

वह कौनसी सफल अर्थ व्यवस्था है. समझ नहीं आता.

कहने को अर्थशास्त्रियों ने देश चलाया है. स्पष्ट था कि खुदरा निवेशकों के पास चुनिंदा आसान विकल्प रह जाएंगे क्योंकि बढ़ती ब्याज दरों की अव​धि बॉन्ड कीमतों के लिए नकारात्मक होगी और अचल संपत्ति बाजार अत्य​​धिक आपूर्ति से प्रभावित होता रहेगा।

जहां तक सोने की बात है इसकी कीमत दो वर्षों की उछाल के बाद ​स्थिर हो रही है। अभी भी इसकी कीमत दो वर्ष पहले वाले स्तर पर है।

शायद विकल्पों की कमी के कारण खुदरा निवेशक म्युचुअल फंड आदि की मदद से शेयर बाजार में लगातार पैसा लगा रहे हैं जबकि बाहरी पोर्टफोलियो निवेशक अपना पैसा बाहर निकाल रहे हैं।

शेयर बाजार के हालिया इतिहास में आश्वस्त करने वाली बात यह है कि बाजार का लगातार दो वर्षों तक नीचे रहना एक दुर्लभ घटना है।

बहरहाल, सामान्य चेतावनी यही कहती है कि अतीत को भविष्य के प्रदर्शन का सूचक नहीं माना जा सकता है क्योंकि तमाम तरह की अनिश्चितताएं मौजूद हैं।

घरेलू कारोबारी मोर्चे पर कॉर्पोरेट मुनाफा अभी भी बढ़ रहा है लेकिन बिक्री की तुलना में वह शीर्ष स्तर पहुंच चुका है क्योंकि मुद्रास्फीतिक परिचालन माहौल में मार्जिन काफी दबाव में है। ब्याज दरें जल्दी ही ऊपरी चक्र के सिरे पर पहुंच जाएंगी और तब एक विकल्प के रूप में ऋण बाजार अपेक्षाकृत अ​धिक आकर्षक हो जाना चाहिए। उदाहरण के लिए हमारे यहां महंगी कारों की बिक्री सस्ती कारों की तुलना में बहुत तेज है।

 

सारी बातों पर विचार करते हुए देखें तो संभव यही है कि भारत की आ​र्थिक गति बहुत तेज नहीं लेकिन ठीकठाक बनी रहेगी। जैसा कि हम पिछले कुछ समय से देख रहे हैं, निजी निवेश में सुधार से ही बात बनेगी लेकिन यह प्रतीक्षा कुछ ज्यादा ही लंबी ​खिंच रही है।

इसलिए सब देखते हुए लगता है कि हम सभी को, देश को बेमतलब की नकली खुशियों में न पड़ कर सिर्फ काम और काम करना चाहिए. केवल कर्म ही देश को जीवन और उन्नति दे सकता है. यही आशा है. हम जीतेंगे.

-Veerji, ITDC News.