देश की न्यायपालिका को लोकतंत्र का स्तंभ कहा जाता है। यह वह संस्था है जिससे जनता को अंतिम और निष्पक्ष न्याय की आशा होती है। परंतु जब इसी संस्था से जुड़े किसी वरिष्ठ न्यायाधीश पर भ्रष्टाचार जैसे गंभीर आरोप लगते हैं, तो यह केवल एक व्यक्ति की निष्ठा पर नहीं, बल्कि पूरे संस्थान की पारदर्शिता और विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न खड़ा करता है।

दिल्ली हाईकोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस यशवंत वर्मा के खिलाफ आए भ्रष्टाचार के आरोपों के बाद, देश के प्रधान न्यायाधीश डी. वाई. चंद्रचूड़ द्वारा एक जांच समिति का गठन करना और जाँच पूरी होने तक उन्हें न्यायिक कार्यों से हटाना, भारतीय न्यायपालिका की जवाबदेही के प्रति गंभीर प्रतिबद्धता को दर्शाता है।

यह कदम न केवल एक संस्थागत प्रतिक्रिया है, बल्कि यह संदेश भी है कि कोई भी न्यायिक पदाधिकारी अपने पद की आड़ में दायित्वों से मुक्त नहीं हो सकता। यह घटना ऐसे समय में सामने आई है जब देशभर में न्यायपालिका की पारदर्शिता को लेकर लगातार बहसें होती रही हैं — और ऐसे में यह निर्णय न्यायपालिका की नैतिक रीढ़ को मज़बूत करने का संकेत है।

यह भी उल्लेखनीय है कि मुख्य न्यायाधीश के इस निर्णय को संविधान के अनुच्छेद 217 और 124 के दायरे में रखते हुए न्यायिक मर्यादा की रक्षा करने वाला माना जा रहा है। इस कार्रवाई में इन-हाउस प्रोसीजर को अपनाया गया है, जिसे पूर्व में भी सुप्रीम कोर्ट के भीतर अनुशासनात्मक मामलों में उपयोग किया जाता रहा है। ऐसे मामलों में आरोप की जांच सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठतम जजों की समिति करती है और फिर उस रिपोर्ट को राष्ट्रपति तक भेजा जाता है, यदि आरोप गंभीर पाए जाएं।

जस्टिस वर्मा को लेकर अंतिम निर्णय अभी शेष है, लेकिन इस पूरे घटनाक्रम ने एक बार फिर यह स्पष्ट कर दिया है कि न्यायपालिका के भीतर भी अब कोई भी असहज प्रश्न अनसुना नहीं किया जाएगा। यह केवल एक व्यक्तिगत मामला नहीं, बल्कि उस प्रणाली की परीक्षा है जिससे देश की करोड़ों जनता अपने अधिकारों की रक्षा की उम्मीद रखती है।

इस प्रकरण से न्यायपालिका के लिए तीन महत्वपूर्ण संदेश उभरते हैं:

1. जवाबदेही: चाहे वह कोई भी न्यायिक पद हो, उस पर बैठे व्यक्ति को जवाबदेह माना जाएगा।

2. संस्थान की प्रतिष्ठा: किसी एक व्यक्ति की गलती से पूरी संस्था पर सवाल न उठें, इसके लिए त्वरित और निष्पक्ष कार्रवाई अनिवार्य है।

3. जनता का भरोसा: न्यायपालिका की पारदर्शिता और निष्पक्षता ही उसे जनता की नजर में सर्वोच्च बनाती है।

भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में, जहां संविधान की आत्मा ‘न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व’ पर टिकी है, वहां न्यायपालिका का नैतिक बल सबसे बड़ा संबल होता है। यह घटना हमें याद दिलाती है कि इस संबल को बचाए रखना उतना ही आवश्यक है जितना कि स्वयं संविधान को।

जस्टिस यशवंत वर्मा पर आरोप सिद्ध होते हैं या नहीं, यह भविष्य के गर्भ में है। परंतु यह तय है कि इस मामले ने भारतीय न्यायपालिका के भीतर आत्मविश्लेषण और सुधार की आवश्यकता को पुनः प्रकट किया है। यह न्यायपालिका की कसौटी भी है और उसका संकल्प भी — कि वह केवल न्याय देने वाली संस्था ही नहीं, बल्कि अपने भीतर भी न्याय कायम रखने में सक्षम है।

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