भारतीय संदर्भ में संगठित न्यूनतम मजदूरी कामगारों का अर्थ कृषि घरेलू कार्यो, लघु उद्योगों विनिर्माण आदि कार्यो में अस्थाई और अनियमित रूप से लगे लोगों से है। देश की कुल श्रम शक्ति में इन कामगारों का हिस्सा 93 प्रतिशत हैं। ये कामगार अर्थव्यवस्था और विकास के हर मोर्चे पर अपना योगदान प्रदान करते हैं लेकिन सामाजिक सुरक्षा के अभाव में अनिश्चित भविष्य के साए में अपना समय गुजारते है।
संगठित न्यूनतम मजदूरी कामगारों से आशय उन कामगारों या मजदूरों से है जो रोजगार के अस्थायी स्वरूप, छोटे तथा बिखरे प्रतिष्ठानों आदि में कार्यरत है तथा अज्ञानता एवं निरक्षता आदि कुछ कारणों से अपने साझा हितों हेतु स्वयं को संगठित नहीं कर सके। संगठित कामगारों से तात्पर्य ऐसे कामगारों से हैं जो किसी भी श्रम संगठन से जुड़े हुए नहीं है अर्थात् किसी भी संगठन के सदस्य नहीं है। संगठित न होने के कारण अपनी परेशानियों को प्रशासन एवं नियोक्ता के समक्ष नहीं रख पाते हैं। इसीलिए सरकार ने इनकी सुविधा के लिए कोई विशेष नियम नहीं बनाये। संगठित न्यूनतम मजदूरी क्षेत्रे के श्रमिकों का कल्याण, केन्द्र व राज्य सरकारों के लिए एक बड़ी चिंता का विषय रहा है। देश की श्रमिक संख्या में लगभग 93 प्रतिशत संगठित क्षेत्र में हैं जो न केवल बिखरे हुए है बल्कि एक स्थान से दूसरे स्थान को जाते रहते हैं, इनमें ज्यादातर अनपढ़ हैं और मकान भोजन और कपड़े जैसी बुनियादी आवश्यकतायें भी इन्हें उपलब्ध नहीं है। इतना ही नही वे इस तरह के काम में कई पीढ़ियों से लगे हुए है। ऐसे लोगों में अपना काम धंधा करने वाले भी हैं जैसे गलियों में फेरी लगाने वाले, छोटे दुकानदार, कारीगर, बुनकर, छोटे और बहुत छोटे किसान, मछुआरे और मेहनत मजदूरी करने वाले निर्माण मजदूर, खेतिहर मजदूर, घरेलू नौकर और रिक्शा चालन आदि ये सभी संगठित न्यूनतम मजदूर कामगारों की श्रेणी में आते हैं लेकिन इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि राष्ट्र के निर्माण और उन्नति तथा समाज की खुशहली में उनका पूर्ण योगदान हैं। ये संगठित न्यूनतम मजदूरी क्षेत्र के मजदूर ही हैं जो परियोजनाओं के स्थलों पर सबसे पहले पहुंचते हैं, चाहे वे सिंचाई या बिजली परियोजनाएं हो या आवास परियोजनां ये वहीं लोग हैं जो उपभोक्ताओं के दरवाजे तक सामान पहुँचाते है। ऐसा अनुमान हैं कि देश के सकल घरेलू उत्पादों में लगभग 60 प्रतिशत इनका योगदान हैं । लेकिन इसके बदले में सामाजिक सुरक्षा के नाम पर इन्हें कुछ नहीं मिलता, जिसके कारण बीमारी बुढ़ापे, बेरोजगारी व आकस्मिक मौत होने पर इनकी हालत शोचनीय हो जाती हैं।
राष्ट्रीय सैंपल सर्वेक्षण संगठन में कराए गए सर्वेक्षण के अनुसार देश में संगठित एवं संगठित न्यूनतम मजदूरी वाले दोनों ही क्षेत्रों में श्रमिकों की कुल संख्या 39.7 करोड़ थी। इनमें से 2.8 करोड़ संगठित क्षेत्र में थे एवं शेष 36.9 करोड़ अर्थात् कुल रोजगार का 92 प्रतिशत संगठित न्यूनतम मजदूरी वाले क्षेत्र में थे। संगठित क्षेत्र के 36.9 करोड़ कामगारों में से 23.7 करोड़ मजदूर अर्थात् 64.2 प्रतिशत मजदूर कृषि क्षेत्र में लगे थे जबकि 1.7 करोड़ मजदूर अर्थात् 4.6 प्रतिशत मजदूर निर्माण क्षेत्र में 4.1 करोड़ अर्थात् 11.1 प्रतिशत मजदूर विनिर्माण क्षैत्र में गतिविधियों में और व्यापार में 3.7 करोड़ अर्थात् 10 प्रतिशत लोग संलग्न थे। इसके अतिरिक्त परिवहन एवं संचार सेवाओं के क्षेत्र में 3.7 करोड़ अर्थात् 10 प्रतिशत लोग लगे हुए थे।
संगठित क्षेत्र में रोज़गार की शर्तें निश्चित और नियमित होती हैं तथा कर्मचारियों को सुनिश्चित कार्य व सामाजिक सुरक्षा मिलती है। इसे एक ऐसे क्षेत्र के रूप में भी परिभाषित किया जा सकता है जो सरकार के साथ पंजीकृत होता है और उस पर कई अधिनियम लागू होते हैं। गौरतलब है कि स्कूल और अस्पताल संगठित क्षेत्र मे ही आते हैं। संगठित क्षेत्र के श्रमिकों को रोज़गार सुरक्षा प्राप्त है और उन्हें कुछ निश्चित घंटों के लिये ही कार्य करना होता है। सामान्यतः यह माना जाता है कि संगठित क्षेत्र में कार्य करने वाले लोग किसी विशेष अनुबंध के तहत कार्य करते हैं। रोज़गार अनुबंध के कारण ही रोज़गार सुरक्षा, न्यूनतम मज़दूरी, समान कार्य के लिये समान वेतन, सुरक्षित काम करने की स्थिति आदि का प्रश्न उठता है। ध्यातव्य है कि अनुबंध के अभाव में कोई भी कर्मचारी उचित सामाजिक न्याय की अपेक्षा नहीं कर सकता।गैर-अनुबंध वाले रोज़गार में वेतन की दर काफी कम होती है और शायद इसीलिये संगठित क्षेत्र कर्मचारियों को बिना अनुबंध किये ही रोज़गार प्रदान करता है।
भारत में संगठित क्षेत्र के एक पूर्णतः विपरीत परिदृश्य को प्रदर्शित करते हैं। आँकड़े बताते हैं कि बीते कुछ वर्षों में देश का संगठित क्षेत्र भी बिना अनुबंध के श्रमिकों को रोज़गार प्रदान कर रहा है। अनुबंध से गैर-अनुबंध की यह स्थिति भारत की अर्थव्यवस्था के लिये बिल्कुल भी अच्छी नहीं है, क्योंकि भारत अपनी अर्थव्यवस्था को और अधिक औपचारिक बनाना चाहता है परंतु ऐसी स्थिति में यह संभव नहीं है। संगठित क्षेत्र में ऐसे कर्मचारी शामिल हैं जो निश्चित शर्तों और समय के तहत कार्य करते हैं। उदाहरण. यदि कोई व्यक्ति किसी कारखाने में कार्यरत है या किसी सरकारी नौकरी में संलग्न है तो वह संगठित क्षेत्र के अंतर्गत आएगा। संगठित क्षेत्रों में नियोक्ता उन पर लागू होने वाले सरकारी नियमों और अधिनियमों का पालन करते हैं।
संगठित क्षेत्र में कार्यरत महिला शब्द का प्रयोग प्रायः नौकरी करने वाली महिला के संदर्भ में किया जाता है अर्थात् वे महिलाए जो घरों के बाहर नियमित रूप से आर्थिक या व्यवसायिक गतिविधियों में व्यस्त रहती है । आज के भौतिकवादी परिवेश में हर महिला का श्रमजीवी होना एक अनिवार्यता बन गयी है। घर की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये पति और पत्नी दोनों का ही कार्य करना आवश्यक हो गया है, जिससे पत्नी की परम्परागत प्रस्थिति एवं भूमिका में परिवर्तन आये हैं घर के बाहर काम करने के कारण पत्नी को घर और बाहर दोनों ही क्षेत्रों की भूमिकाओं का निर्वहन करना पड़ता है। जिससे कभी-कभी ऐसी स्थिति भी आती है कि दोनों भूमिकाओं में तनाव उत्पन्न हो जाता है। इस प्रकार हम देखते है कि श्रम (पेशे) का परिवार के निर्माण पर, परिवार की संरचना पर, परिवार की भूमिका पर, और परिवार के विघटन पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। इसका कारण यह प्रतीत होता है कि जो महिलाओं में नौकरी करने की लहर आयी है उसका प्रभाव उसके सम्पूर्ण व्यक्तित्व पर तथा पारिवारिक संबंधों पर पड़ता है अब उसे एक तरह गृहणी, पत्नी, मॉ और दूसरी तरह जीविकोपार्जन दोनों की भूमिका निभानी पड़ती है। इस तरह दोहरी भूमिका को निभाने में उसकी शक्ति और समय खर्च दोनों होता है और इसका परिणाम यह होता है कि पारिवारिक संबंधों पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। गृह कार्य के लिये समय का अभाव होता है। एक ही समय में घर की व्यवस्था करना और नौकरी पर जाने की तैयारी करना आसानी से सम्भव नहीं है। महिलाए अपने पति को स्वामी न मान कर एक मित्र की भॉति मानने की भावना इन महिलाओं में परिलक्षित होती है।
इस कारण संगठित क्षेत्र में कार्यरत महिलाओं के दाम्पत्य जीवन के साथ ही परिवारों में तनाव की स्थिति प्रारंभ हो जाती है। पति श्रेष्ठ है तथा पत्नी उसके आधीन है, यह भावना आ जाती है, जिसने इस भावना के आगें अपने को सम्पूर्ण समर्पण कर दिया वह परिवार में सभायोजित हो जाती है। यदि पति-पत्नी को एक दूसरे को समझना सुखमय दाम्पत्य जीवन का रहस्य है। पति पत्नी में आपसी समझ बूझ के अभाव में व्यक्तिगत मान्यताओं को प्रथम स्थान देते हैं। अतः इससे एक दूसरे को सहयोग देने कीबात ही नही उठती है, घर और बाहर भी जिम्मेदारियों को एक साथ ढ़ोना संगठित क्षेत्र में कार्यरत महिलाओं के लिये असम्भव है, इस अवधि में वह पति से सहयोग की अपेक्षा रखती है यदि पति अपने पत्नी के अपेक्षा पर खुश उतरती है वो महिला अपने दोहरी जिम्मेदारियों को कुशलतापूर्वक निर्वहन कर सकती है। यदि पति अपनी पत्नी का सहयोग नहीं करता है तो परिवार में तनाव सुनिश्चित है।
स्वतंत्रता भारत को 15 अगस्त 1947 को प्राप्त हुई तथा 1948 में नवगठित केन्द्रिय विधान मंडल ने न्यूनतम मजदूरी अधिनियम (1948) पारित किया जिसका आधार भारत की औद्योगिक नीति, कर नीति, श्रमनीति तथ श्रम विधिशास्त्र रहे है। वैसे तो 1936 में मजदूरी भुगतान अधिनियम और 1923 में कर्मकार प्रतिकार अधिनियम पारित हुआ था, लेकिन ये विधायक विदेशी शासको के स्वार्थ का शिकार बन चुके थे। भारतीय संविधान 1950 ने अपने तीसरे अद्यतन में मूल अधिकार का प्रावधान किया। नागरिकों को गैर नागरिक एवं विधेयक न्यायालयों (निगमिता निवदा) हेतु कुछ सीमा तक उपबंधित किए और उनके यथार्थ में क्रियान्वयन हेतु नीति निर्देशक तत्वों के प्रावधानों के उपबंधित किया है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् सन् 1954 में माननीय श्री वी.वी. गिरी श्रम मंत्री रहे, समस्त शासकीय घोषणाऐं/अधिसूचनाऐं श्रमिकों का आत्मविश्वास बढ़ाने हेतु श्रमिकों के लाभ हेतु कई योजनाऐं संचालित होना शुरू हुई। सन् 1954 तथा त्रिपक्षीय नीति की विचार धारा को संबल प्रबल रूप से प्राप्त हुआ। सन् 1958 में प्रथम बार सोलहवे अंतर्राष्ट्रीय श्रम सम्मेलन में यह निर्णय लिया गया था कि उद्योगों के दोनो वर्ग श्रमिक एवं पूंजीपति बिना दूसरे पक्ष को सूचना दिए हड़ताल या तालाबंदी की एकतरफा कार्यवाही नहीं करेगे। उसे त्याग कर स्वेछिक, मध्यस्था द्वारा अपनी समस्या का समाधान करेगे। अब पीडित तथा उत्पीड़ित निवारण का सहारा नही लिया जाय, बल्कि कष्ट निवारण प्रक्रिया के माध्यम से उपचारी हेतु अनिवार्यता प्रदत्त प्रक्रिया करेंगे, अपवादों को छोड़ते हुए। स्वतंत्रता के पश्चात् औद्योगिक क्रांति भारत में आई। प्रथम पंचवर्षीय योजना के महान शिल्पकार प्रधानमंत्री श्री नेहरू एवं शिल्पज्ञा पी सी महलानेविस ने यह उल्लेखित किया था कि भारत के लिए आर्थिक विकास एवं उन्नति हेतु औद्योगिक शांति एवं औद्योगिक सामन्जस्य अति आवश्यक होते है।
अतः औद्योगिक सामजस्य में श्रमिकों औद्योगिक सामंजस्य में श्रमिकों, उनके नियोकताओं एवं शासन जो राष्ट्र का प्रतिनिधि एवं प्रतीक हैं उनका सहायोग अध्यादेश पारित है। कमजोर वर्ग के शोषण को रोकने में वहीं सक्षम है, क्यांकि मतदाता ही शासन के प्रत्यक्ष निर्माता है। भारत में श्रम कल्याण का अपना विशेष महत्व है। शासन उस कार्य को व्यवस्थित और उत्पादित माल से उपभोक्ताओं को संतुष्टि व उसकी सहायता और तेजगति के माध्यम से प्राप्त होता है।

प्रीति कनाडिया, विधि में नेट क्वालिफाइड और मध्य प्रदेश के शासकीय विश्विद्यालय में अध्यापन सेवा में सलंग्न हैं।

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