उत्तर प्रदेश के नौकरशाही तंत्र में इन दिनों एक ऐसा मुद्दा चर्चा में है, जो पहली नजर में मामूली और हास्यास्पद लग सकता है – कुर्सियों पर सफेद तौलिया रखने का। हालांकि यह परंपरा बेहद सामान्य सी दिखती है, लेकिन इसके पीछे सत्ता, परंपरा और प्रशासनिक ढांचे में गहराई तक जमी हुई समस्याओं की झलक मिलती है।
दशकों से भारत में सफेद तौलिया एक अनकहे सत्ता-प्रतीक का रूप ले चुका है। यह एक ऐसा चिह्न बन गया है, जो अधिकारियों और नेताओं के विशेषाधिकार और अधिकार को दर्शाता है। लेकिन उत्तर प्रदेश में, जब कुछ जूनियर अधिकारियों ने इस परंपरा को अपनाया, तो इसे वरिष्ठ अधिकारियों और राजनेताओं ने अपने अधिकारों के उल्लंघन के रूप में देखा।
इस विवाद के गहरे मायने क्या हैं? पहली नजर में यह मुद्दा बेरोजगारी, स्वास्थ्य सुविधाओं और बुनियादी ढांचे जैसी बड़ी समस्याओं के बीच एक अप्रासंगिक बहस लगता है। लेकिन असल में यह हमारी व्यवस्था में गहरे समाए उस संघर्ष को उजागर करता है, जहां परंपरा और आधुनिकता आपस में टकराते हैं।
लोकतांत्रिक व्यवस्था में सत्ता का आधार समानता और योग्यता होनी चाहिए। परंतु, सत्ता और अधिकार के प्रतीक बन चुके सफेद तौलिये जैसे प्रतीक इन सिद्धांतों के विपरीत खड़े होते हैं। युवा अधिकारी इसे सामान्य कार्यशैली के प्रतीक के रूप में देखते हैं, जबकि वरिष्ठ इसे सत्ता के अनुशासन और गरिमा का हिस्सा मानते हैं।
परंपराओं के संरक्षण के अपने फायदे हो सकते हैं। ये सांस्कृतिक निरंतरता और व्यवस्था बनाए रखने में मदद करती हैं। लेकिन जब ये प्रतीक सामंती मानसिकता को बढ़ावा देने लगें और असमानता का आधार बन जाएं, तो इन्हें फिर से परिभाषित करने की जरूरत है। सफेद तौलिया अब उस सत्ता का प्रतीक नहीं रहना चाहिए, जो समानता और न्याय के खिलाफ खड़ी हो।
यह विवाद नौकरशाही के लिए आत्मनिरीक्षण का मौका है। यह प्रशासनिक सत्ता और प्रतीकों को इस तरह से परिभाषित करने की मांग करता है, जो 21वीं सदी के लोकतांत्रिक मूल्यों को प्रतिबिंबित करें। कुर्सियों और तौलियों की बजाय, ध्यान प्रदर्शन और जवाबदेही पर होना चाहिए।
भारत तेजी से विकास कर रहा है, और उसके साथ उसकी संस्थाओं और सांस्कृतिक प्रतीकों को भी बदलने की जरूरत है। सफेद तौलिया विवाद भले ही छोटा लगता हो, लेकिन इसका समाधान समानता, परंपरा और सत्ता के मुद्दों को सुलझाने में एक महत्वपूर्ण कदम हो सकता है।
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