भारतीय लोकतंत्र में संसदीय समितियों की भूमिका बेहद अहम होती है। ये समितियां विधेयकों और सरकारी नीतियों की समीक्षा कर उन्हें अधिक पारदर्शी और संतुलित बनाने का काम करती हैं। लेकिन हाल ही में वक्फ (संशोधन) विधेयक पर संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) की रिपोर्ट पेश किए जाने के बाद राज्यसभा और लोकसभा में जिस तरह का हंगामा हुआ, उसने संसदीय प्रक्रियाओं की निष्पक्षता और पारदर्शिता पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं।

विपक्ष की आपत्तियां और सत्ता पक्ष का रुख

विपक्षी दलों, विशेष रूप से कांग्रेस और आम आदमी पार्टी ने आरोप लगाया कि जेपीसी रिपोर्ट से उनकी असहमतियों को जानबूझकर हटा दिया गया। राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने इस रिपोर्ट को “फर्जी” और “असंवैधानिक” करार दिया, जबकि आम आदमी पार्टी के सांसद संजय सिंह ने भी अपनी आपत्तियां दर्ज कराईं। इसके जवाब में, गृह मंत्री अमित शाह ने स्पष्ट किया कि यदि विपक्ष कुछ जोड़ना चाहता है तो सरकार को कोई आपत्ति नहीं है। साथ ही, जेपीसी के अध्यक्ष जगदंबिका पाल ने भी विपक्ष की चिंताओं को रिपोर्ट में शामिल करने का आश्वासन दिया।

संसदीय समितियों की निष्पक्षता का संकट

यह पहली बार नहीं है जब संसदीय समितियों की कार्यप्रणाली पर सवाल उठे हैं। इससे पहले भी कई विधेयकों की समीक्षा प्रक्रिया को लेकर विवाद हुए हैं, जहां विपक्ष ने अपनी राय की अनदेखी का आरोप लगाया है। इस तरह के आरोप न केवल संसदीय लोकतंत्र की साख पर असर डालते हैं, बल्कि जनमत को भी प्रभावित करते हैं। जब विधेयकों पर विचार-विमर्श करने वाली समितियां पक्षपातपूर्ण तरीके से काम करने लगती हैं, तो नीतियों की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न लग जाता है।

क्या हो अगला कदम?

विपक्ष का वॉकआउट यह दर्शाता है कि सहमति बनने की संभावना फिलहाल धूमिल है। हालांकि, यदि सरकार और संसदीय समितियां वास्तव में बहस और संवाद के लिए प्रतिबद्ध हैं, तो विपक्ष की असहमतियों को रिपोर्ट में दर्ज करने की मांग को गंभीरता से लिया जाना चाहिए। लोकतंत्र की सफलता संवाद और सहमति पर टिकी होती है, न कि एकतरफा निर्णय लेने पर।

निष्कर्ष

वक्फ (संशोधन) विधेयक पर जेपीसी रिपोर्ट को लेकर हुआ विवाद केवल एक विधेयक तक सीमित नहीं है, बल्कि यह व्यापक प्रश्न उठाता है कि क्या संसदीय प्रक्रियाएं निष्पक्ष रूप से संचालित हो रही हैं। यदि सरकार और विपक्ष लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करना चाहते हैं, तो उन्हें पारदर्शी और समावेशी संवाद को प्राथमिकता देनी होगी। वरना, संसदीय लोकतंत्र की साख को गहरा आघात पहुंच सकता है।

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