भोपाल । इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय द्वारा अपनी ऑनलाइन प्रदर्शनी श्रृंखला के साठवे  सोपान के तहत आज जनजातीय आवास मुक्ताकाश प्रदर्शनी से  “ओडिशा की सावरा जनजाति का पारंपरिक आवास प्रकार” से सम्बंधित विस्तृत जानकारी तथा छायाचित्रों एवं वीडियों को ऑनलाईन प्रस्तुत किया गया है।

इस संदर्भ में संग्रहालय के निदेशक डॉ. प्रवीण कुमार मिश्र ने बताया कि सावरा ओडिशा की सबसे  प्राचीन जनजातियों में से एक है। सावरा यों तो पूरे राज्य में फैले हुए हैं पर उनकी आबादी का बड़ा हिस्सा गजपति और रायगडा जिले के गुनुपुर उप-मंडल में रहता है| उन्हें विभिन्न नामों से पुकारा जाता है जैसे सौरा, सौरा, सबारा, सावरा, सौर, सोरा आदि| यह भारत का प्रमुख आदिवासी समुदाय है जिसका अपना लंबा इतिहास है। इनका उल्लेख संस्कृत साहित्य, महाकाव्यों, पुराणों और अन्य धर्म ग्रंथों में मिलता है। विशेष रूप से ओडिशा में, वे भगवान जगन्नाथ की पूजा से बहुत घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए हैं, जो एक पौराणिक परंपरा के अनुसार सावरा देवता के रूप में उत्पन्न हुए और बाद में शाही संरक्षण में पुरी लाए गए। सावरा पूर्वी भारत के ऊंचे दुर्गम स्थानो पर रहते हैं। वे मुख्य रूप से दो वर्गों, पहाड़ी सावरा या लांजिया सावरा और निचली भूमि सावरा या सुधा सावरा में विभाजित हैं। गांव पहाड़ी ढलानों पर  दूर-दूर बसे हुए होते है | गांव के प्रवेश द्वार पर गांव देवताओं (काष्ठ स्तम्भ) की स्थापना होती है | आकर्षक दीवार पेंटिंग  बनाते हैं, जिसे “इदितल” कहा जाता है| सामाजिक-धार्मिक रीति-रिवाज इनके सांस्कृतिक जीवन में सबसे अधिक महत्व रखते हैं। इनकी भाषा ऑस्ट्रो-एशियाई परिवार के कोल-मुंडा समूह से संबंधित है | सावरा मध्यम कद के होते हैं,  महिलाएं पुरुषों से छोटे कद की होती हैं, इनके त्वचा का रंग  हल्के पीले से गहरे-भूरे रंग का होता है |  सिर पर घने लहरदार बाल होते है जो चेहरे पर कम होते है। सावरा प्रदेश अपनी ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों,  तीक्ष्ण पर्वत धाराओं और ढलानयुक्त दूर-दूर घाटियों के साथ अपनी पोडु खेती के कारण बहुत सुरम्य होते है | पत्थरों द्वारा एक के ऊपर एक रचित  सीढ़ीदार धान के खेत, पहाड़ियों और घाटी की सुंदरता को बढ़ाते है। सवरा सिंचाई में भी निपुण हैं | इन्होंने पहाड़ की धाराओं को  बांधकर अपने सीढ़ीदार खेतों को सींचने के लिए पहाड़ी से नीचे पानी इकट्ठा करने में उल्लेखनीय कौशल दिखाया है। सावरा स्थानांतरित और स्थायी खेती में समान रूप से माहिर हैं। सावरा अपनी झोपड़ियों का निर्माण पहाड़ियों की तलहटी में या पहाड़ी ढलानों पर करते हैं|

अधिकांश सावरा गाँव घने जंगलों में होते हैं, और अजनबियों को अक्सर इन गाँवों में टेढ़े-मेढ़े जंगल के रास्तों का पता लगाना मुश्किल होता है। उनके घर अक्सर समानांतर पंक्तियों में होते हैं जो क्रमबद्धता को दर्शाते हैं। झोपड़ियाँ आयताकार होती हैं जिनकी दीवारें मिट्टी से बनी होती हैं और उन पर पत्थर बड़े करीने से मिट्टी से मढ़े जाते हैं जो अक्सर सफेद धारियों से सजाए जाते हैं। लिविंग रूम में फर्श से लगभग पांच ऊपर क्रॉस बीम द्वारा बनाई गई लाफ्ट पर अनाज टोकरियों में रखा जाता है | छत ढलानयुक्त और घास की छप्पर वाली होती है | छत की घास को दो-तीन साल में एक बार बदला जाता है । सावरा का मुख्य भोजन चावल, रागी या जाना या कुछ अन्य आनाज है। कभी-कभी वे आम के बीज, रागी और चावल की गिरी से तैयार जौ खाते हैं। मिट्टी के पत्रों में भोजन पकाते है और पत्तियों से निर्मित पात्रों में खाते हैं | ये शाकाहारी भोजन की तुलना में मांसाहारी भोजन अधिक पसंद करते है और इसके बिना कोई त्योहार नहीं मनाया जाता साथ ही किसी अतिथि का स्वागत मांसाहारी भोजन के बिना संभव नहीं है। सावरा ने अपने पंथ में कई देवी-देवताओं और अर्ध-देवताओं को शामिल किया है | उनकी मूल विश्वास प्रणाली पूर्वजों और आत्माओं की पूजा के इर्द-गिर्द केंद्रित है। इन सभी देवताओं और आत्माओं की अपने अनुयाईयों से निरंतर अपेक्षा होती है। उनका मानना है कि अगर उनकी मांगें पूरी नहीं की गईं तो वे उन्हें नुकसान पहुंचा सकते हैं। इन सभी देवताओं और  पूर्वजों की आत्माओं को संतुष्ट करने के लिए  वे मुर्गी,  बकरी,  भेड़,  सूअर,  भैंस और शराब के बर्तन और कपड़े चढ़ाते हैं।

डॉ. पी. शंकर राव, सहायक कीपर ने जानकारी देते हुए बताया कि नृत्य सावरा जीवन का अभिन्न अंग है। ये स्त्री-पुरुष, सभी के मनोरंजन का महत्वपूर्ण स्रोत है। इनका कोई भी त्यौहार या समारोह नृत्य के बिना पूरा नहीं माना जाता है। सावरा द्वारा तीन प्रकार के प्रमुख नृत्य किए जाते हैं, ये हैं बागा बागुली, रसराकेली और  दलखाई नृत्य। बागा-बगुली नृत्य सावरा के महत्वपूर्ण नृत्यों में से एक है। बागा-बगुली नृत्य अविवाहित लड़कों और लड़कियों द्वारा ग्राम माँ या कुडनबोई के निर्देशन में किया जाता है। जब भी कोई अतिथि गांव में आता है  तो उनके मनोरंजन के लिए  प्रेम और सम्मान का प्रतीक ‘बागा-बगुली’ नृत्य का आयोजन किया जाता है। सावरा बहुत ही कलात्मक लोग हैं,  उनका कौशल न केवल उनके भित्ती चित्रों में बल्कि उनके नृत्य और संगीत में भी प्रकट होते हैं। उनके गीतों के शब्द संयोजन में हास्य, रोमांस और माधुर्य का खूब समावेश होता है | संगीत ने उनके ग्रामीण जीवन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। संगीत उनके लिए मात्र नाच-गाने का विषय नहीं है बल्कि इसका संबंध मुख्य रूप से अनुष्ठान और शारीरिक एवं आध्यात्मिक कल्याण की परंपरा, रीति-रिवाजों, शादी विवाह और अन्य समारोहों के साथ वसंत से जुड़े अनुष्ठानों से भी है। वे विभिन्न प्रकार के वाद्ययंत्र बजाते हैं जैसे कि विभिन्न आकारों के ड्रम, बांसुरी, पाइप, झांझ, शहनाई, घडि़याल, रस्सियां और स्ट्रिंग वाद्ययंत्र। सावरा संस्कृति की विलक्षणता पूर्वजों की पूजा में है जिसे वे ‘दुंबा’  कहते हैं, जो इस विश्वास के साथ की जाती है की पूर्वज मृत्यु के बाद भी दुनिया में रह रहे हैं और अभी भी परिवार की भलाई के लिए उनकी देखभाल कर रहे हैं। वे सोचते हैं कि अपने सुख-दुख और सामाजिक कार्यों में पूर्वजों को भूलना पाप है। पांचवीं पंचवर्षीय योजना की शुरुआत के बाद से सावरा जनजातियों के समग्र कल्याण के लिए एक उप योजना ताकि इन पर विशेष ध्यान दिया जा सके| इससे जुड़े कार्यक्रमों के क्रियान्वयन को सुनिश्चित करने के लिए विशेष प्रशासनिक संरचना भी बनाई गई। भारत की 2011 की जनगणना के अनुसार, ओडिशा में सावरा की जनसंख्या 5,34,751 है |