भारत एक ऐसा देश है जहां विविधता को हमेशा उसकी ताकत माना गया है। यहाँ धर्म, संस्कृति और परंपरा ने सामाजिक और आध्यात्मिक जीवन को परिभाषित किया है। लेकिन जब इन्हीं परंपराओं का उपयोग राजनीतिक हितों को साधने के लिए किया जाता है, तब यह सवाल खड़ा होता है कि क्या हमारा लोकतंत्र सही दिशा में आगे बढ़ रहा है?

हाल ही में भारतीय जनता पार्टी (BJP) की एक रणनीति चर्चा का विषय बनी। खबर है कि पार्टी ने 29,000 मंदिरों और उनके पुजारियों को संगठित करने की योजना बनाई है, ताकि 2024 के लोकसभा चुनाव में उनके समर्थन का लाभ उठाया जा सके। दूसरी ओर, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पर आरोप लगे हैं कि उनकी सरकार मौलवियों को अधिक महत्व देती है और मंदिरों की उपेक्षा करती है। यह घटनाक्रम एक व्यापक बहस को जन्म देता है—क्या राजनीति में धर्म का इतना गहरा हस्तक्षेप लोकतंत्र के लिए सही है?

धार्मिक ध्रुवीकरण बनाम विकास का मुद्दा
चुनावी राजनीति में धर्म का उपयोग नया नहीं है। हर दल ने कभी न कभी इसे अपने एजेंडे में शामिल किया है। लेकिन इस बार जिस तरह मंदिरों और पुजारियों को एक व्यापक रणनीति का हिस्सा बनाया जा रहा है, वह भारतीय लोकतंत्र की धर्मनिरपेक्ष नींव को चुनौती देता है।

पुजारियों द्वारा लगाया गया यह आरोप कि केजरीवाल सरकार मौलवियों को तरजीह देती है, एकतरफा हो सकता है। हालांकि, अगर इसमें सच्चाई है, तो यह चिंता का विषय है। क्या हमारे नेता, जो खुद को सबका प्रतिनिधि कहते हैं, किसी धर्म विशेष के प्रति पक्षपाती हो सकते हैं?

राजनीति में धर्म का बढ़ता हस्तक्षेप
अगर BJP सचमुच मंदिरों को चुनावी हथियार बना रही है, तो यह एक खतरनाक संकेत है। धर्म और राजनीति का मेल लंबे समय में सामाजिक ताने-बाने को नुकसान पहुंचा सकता है। मंदिर या मस्जिद, गुरुद्वारा या चर्च—ये सभी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक धरोहरें हैं। इनका इस्तेमाल वोट बैंक के रूप में करना न केवल धर्म का अपमान है, बल्कि लोकतंत्र के लिए भी घातक है।

हमारा संविधान धर्मनिरपेक्षता का समर्थन करता है, जिसमें हर धर्म के प्रति समान दृष्टिकोण अपनाने की बात की गई है। ऐसे में किसी भी राजनीतिक दल या सरकार का एक धर्म को प्राथमिकता देना या उसे चुनावी लाभ के लिए इस्तेमाल करना संविधान की मूल भावना के खिलाफ है।

जनता की जिम्मेदारी
देश की जनता को भी यह समझना होगा कि उनका वोट केवल धर्म के आधार पर नहीं, बल्कि विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और अन्य बुनियादी मुद्दों के आधार पर जाना चाहिए। धर्म को राजनीति से जोड़ना केवल अल्पकालिक लाभ देता है, लेकिन दीर्घकालिक रूप से यह देश को कमजोर करता है।

यह समय है कि हम धर्म और राजनीति के बीच स्पष्ट रेखा खींचें। हमें यह तय करना होगा कि हमारे नेता हमें धार्मिक आधार पर नहीं, बल्कि विकास और समावेशी दृष्टिकोण के आधार पर नेतृत्व दें।

निष्कर्ष
भारत की ताकत उसकी विविधता में है। इस विविधता को धर्म के नाम पर विभाजित करना देश के लिए नुकसानदायक हो सकता है। राजनीतिक दलों को समझना होगा कि धर्म को हथियार बनाना एक अस्थायी जीत दिला सकता है, लेकिन यह समाज में गहरी खाई पैदा करेगा। मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा या चर्च—ये सभी हमारे आध्यात्मिक और सांस्कृतिक धरोहर हैं। इन्हें राजनीतिक हथियार बनाने के बजाय एकता और सद्भाव के प्रतीक के रूप में देखना चाहिए।

लोकतंत्र तभी सशक्त होगा, जब धर्म और राजनीति का घालमेल खत्म होगा और लोग विकास के मुद्दों को प्राथमिकता देंगे।

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