राहुल गांधी ने पटना की एक जनसभा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ‘एनडीए का सुप्रीम लीडर’ कहकर न केवल सियासी कटाक्ष किया, बल्कि लोकतंत्र की दिशा पर गहरी बहस छेड़ दी। सवाल सीधा है—क्या भारत में लोकतंत्र अब संस्था से हटकर व्यक्ति पर केंद्रित होता जा रहा है?
🔷 1. नेता बनाम व्यवस्था: प्राथमिकता किसे?
भारत के लोकतंत्र की बुनियाद संस्थाओं पर आधारित रही है। संसद, न्यायपालिका, निर्वाचन आयोग जैसी संस्थाओं की निष्पक्षता ही जनता के विश्वास की रीढ़ है। लेकिन यदि सारी सत्ता और निर्णय केवल एक व्यक्ति पर केंद्रित हो जाएँ, तो यह न केवल संस्थाओं का अपकेंद्रण है, बल्कि लोकतंत्र की आत्मा का क्षरण भी।
🔷 2. ‘सुप्रीम लीडर’ की राजनीति: किसे लाभ?
प्रधानमंत्री मोदी की नेतृत्व क्षमता पर कोई संदेह नहीं, लेकिन जब राजनीतिक विमर्श केवल एक चेहरे के इर्द-गिर्द सिमट जाए, तो नीतिगत बहसें हाशिये पर चली जाती हैं।
सोशल मीडिया पर #SupremeLeader और #ModiForPM जैसे ट्रेंड लोकतंत्र की स्वस्थ बहसों की जगह प्रचार आधारित संवाद को प्राथमिकता देते हैं।
🔷 3. ऐतिहासिक दृष्टिकोण: सेवक बनाम सर्वोच्च
गाँधी, नेहरू, अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेताओं ने स्वयं को सत्ता का ‘सेवक’ माना, न कि सर्वोच्च शासक। वे आलोचना को लोकतंत्र की शक्ति मानते थे। आज यदि नेतृत्व आलोचना को असहमति नहीं, देशविरोध मानता है, तो यह लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों से विचलन है।
🔷 4. क्या यह नया लोकतंत्र है?
जनता की अपेक्षाएँ बदल रही हैं। तेजी से निर्णय लेने वाला, स्पष्ट छवि वाला नेता उन्हें सुशासन का पर्याय लगता है। किंतु इस प्रक्रिया में यदि बहस, विमर्श, असहमति जैसे लोकतांत्रिक मूल्यों की बलि दी जाती है, तो यह व्यवस्था के लिए दीर्घकालीन खतरा है।
🔷 5. निष्कर्ष: चेहरे नहीं, चरित्र आधारित शासन चाहिए
लोकतंत्र केवल चुनाव जीतने का साधन नहीं, यह एक प्रक्रिया है जिसमें जनता की भागीदारी, संस्थाओं की स्वतंत्रता और विचारों की विविधता ज़रूरी है। आज ज़रूरत है कि हम सत्ता के चेहरे नहीं, उसकी कार्यशैली और जवाबदेही पर ध्यान दें।
🔖 अंतिम पंक्तियाँ:
“लोकतंत्र में नेता महत्वपूर्ण है, लेकिन सर्वोपरि नहीं। सर्वोपरि है वह व्यवस्था, जो हर नागरिक को समान अधिकार और न्याय दिला सके।”
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