राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के प्रमुख मोहन भागवत ने हाल ही में अपने संबोधन में भारतीय शासन परंपरा की गहरी और समयसिद्ध बात को पुनः प्रस्तुत किया। उनका संदेश केवल विचारणीय नहीं, बल्कि आज के सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य के लिए अत्यंत प्रासंगिक भी है। उन्होंने कहा, “अहिंसा हमारा स्वभाव है, लेकिन समाज में उत्पात मचाने वालों को सबक सिखाना हमारा धर्म भी है।”=
यह कथन भारतीय संस्कृति की जड़ों को स्पष्ट रूप से उजागर करता है, जिसमें अहिंसा और कठोरता दोनों का संतुलन आवश्यक बताया गया है। भागवत का यह वक्तव्य भारतीय समाज में न्याय और सुरक्षा के सिद्धांतों को सही दृष्टिकोण से समझने में मदद करता है।
शासक का धर्म: प्रजा की रक्षा
भारतीय शास्त्रों में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि राजा या राज्य का धर्म केवल अर्थव्यवस्था को चलाना नहीं है, बल्कि नागरिकों के जीवन, सम्मान और स्वतंत्रता की रक्षा करना भी है। जब शासन इस जिम्मेदारी से चूकता है, तो अपराध और अराजकता का विस्तार होने लगता है। भागवत ने इस आदर्श को फिर से रेखांकित किया कि शांति केवल उपदेशों से नहीं, बल्कि सज्जनों की रक्षा और दुष्टों का दमन करने से ही स्थायी हो सकती है।
यह भारतीय शासन परंपरा का मौलिक सिद्धांत है कि “धर्म की रक्षा करने के लिए कठोरता आवश्यक है, लेकिन वह बिना अहिंसा के भी संभव है।”
अहिंसा का वास्तविक अर्थ
भागवत ने अहिंसा के बारे में एक महत्वपूर्ण दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। उन्होंने स्पष्ट किया कि अहिंसा का अर्थ यह नहीं है कि अन्याय के सामने आंख मूंद ली जाए। सच्ची अहिंसा में साहस छिपा होता है — अन्याय के खिलाफ खड़े होने का साहस। जब दुष्ट प्रवृत्तियों को केवल सहा जाता है, तो वे समाज के ताने-बाने को ही छिन्न-भिन्न कर देती हैं। इसीलिए, शासन की जिम्मेदारी है कि वह सज्जनों को निर्भयता का वातावरण प्रदान करे और अपराधियों को भय का।
आज के समय में, जब भारत तेजी से विकास कर रहा है, तब यह सुनिश्चित करना कि समाज के हर वर्ग को न्याय और सुरक्षा का वास्तविक अनुभव हो, अत्यंत आवश्यक है। केवल सड़कें और इमारतें बनाना पर्याप्त नहीं है। विकास तभी पूर्ण होगा जब समाज के सभी वर्गों को सुरक्षा और न्याय की गारंटी दी जाएगी।
भारत की परंपरा: करुणा और वीरता का संतुलन
भारत की परंपरा ने हमेशा करुणा और वीरता दोनों के अद्वितीय संतुलन को संरक्षित किया है। न तो कठोरता में अमानवीयता है, और न ही करुणा में कमजोरी। भागवत का यह संदेश यही सिद्ध करता है कि आज के नेतृत्व के लिए यह संतुलन सबसे बड़ी कसौटी है।
कृष्ण के वक्त से लेकर आज तक, भारतीय राजधर्म यही रहा है कि नागरिकों की रक्षा करना, सज्जनों का सम्मान करना और दुर्जनों को दंडित करना – यही वह दायित्व है जिसकी अपेक्षा जनता अपने नेताओं से करती है।
धर्म और अन्याय के संघर्ष में मौन नहीं, संघर्ष आवश्यक है
भागवत का यह आह्वान केवल एक संगठन प्रमुख का नहीं, बल्कि उस सभ्यता की स्मृति का है जिसने हजारों वर्षों तक यह सिखाया कि जब धर्म और अन्याय आमने-सामने हों, तो मौन नहीं, बल्कि धर्म के पक्ष में खड़ा होना ही सच्चा कर्तव्य है। यह संदेश इस समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है, जब समाज में अनुशासन और न्याय की कमी दिखाई देती है।
निष्कर्ष
भागवत का यह वक्तव्य भारतीय शासन परंपरा और समाज के बीच एक महत्वपूर्ण संवाद स्थापित करता है। उन्होंने जो दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है, वह आज के राजनीतिक और सामाजिक संदर्भ में अत्यंत आवश्यक है। जब शासन अपनी जिम्मेदारी पूरी करता है, तो समाज में स्थिरता, सुरक्षा और न्याय की भावना स्थापित होती है। यह एक सशक्त और समृद्ध राष्ट्र की नींव है, जहाँ न केवल भौतिक विकास होता है, बल्कि नागरिकों का सम्मान और उनकी सुरक्षा भी सुनिश्चित होती है।
संतुलित शासन और कड़े निर्णय, दोनों ही भारतीय लोकतंत्र की आवश्यकताएँ हैं, और मोहन भागवत का यह संदेश हमारे लिए एक दिशा है।
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