आईटीडीसी इंडिया ईप्रेस/आईटीडीसी न्यूज़ भोपाल: आज सदाबहार वेटरन एक्टर देव आनंद की 100वीं बर्थ एनिवर्सरी है। हिंदी सिनेमा के सबसे सुंदर एक्टर कहे जाने वाले देव आनंद ने अपनी झुकी हुई गर्दन, आंखों के कोने से प्यार भरी नजर, स्टाइलिश कपड़े और मासूमियत से भरे चेहरे के जरिए हजारों लड़कियों को अपना दीवाना बना लिया था।

ब्रिटिश सरकार के मुलाजिम होने से लेकर उन्होंने एक्टर बनने तक का सफर तय किया। राजनीति में भी उन्होंने हाथ आजमाया। कई खूबसूरत एक्ट्रेसेस के साथ उनका अफेयर रहा लेकिन अंत में अकेले ही रहे। उनकी हर फिल्म का दर्शक लंबे समय से इंतजार करते थे। एक बार तो उनकी फिल्म टैक्सी ड्राइवर देखने के लिए सभी टैक्सी ड्राइवर अपना काम छोड़ एक समय पर ही फिल्म देखने चले गए थे।

देव आनंद के 100वीं बर्थ एनिवर्सरी पर पढ़िए उनकी जिंदगी के दिलचस्प किस्से….

बचपन का सफर

देव आनंद के पिता किशोरी लाल आनंद गुरदासपुर जिले में एक जाने माने वकील थे। वह नामी वकील होने के साथ कांग्रेस कार्यकर्ता थे और स्वतंत्रता आंदोलन में जेल भी गए थे। पिता के व्यक्तित्व का असर देव आनंद पर भी पड़ा, कम उम्र से ही वो वाचाल रहे। वो हमेशा कहते थे कि पिता उनके पहले गुरु रहे हैं।

देव आनंद को बचपन से ही फिल्में देखना और फिल्मी पत्रिकाएं पढ़ने का बहुत शौक था। वो रद्दी की दुकान से मैगजीन लाकर पढ़ा करते थे। रोज मैगजीन खरीद कर लाने से दुकानदार से भी उनकी दोस्ती हो गई थी, इस वजह से दुकानदार रोज उनके लिए मैगजीन छांट कर अलग से रख देता और कभी-कभी मुफ्त में भी दे देता था।

विदेश नहीं गए इसलिए एक्टर बने

मैगजीन की दुकान पर देव आनंद ने एक दिन सुना कि अपनी फिल्म बंधन के लिए अशोक कुमार गुरदासपुर आ रहे हैं। जब अशोक कुमार आए तो उन्हें देखने के लिए भारी भीड़ उमड़ पड़ी। जहां एक तरफ लोग अशोक कुमार से मिलने और उनसे ऑटोग्राफ लेने के लिए उतावले थे, वहीं दूसरी तरफ देव आनंद दूर खड़े होकर उन्हें बस देखते रहे।

अशोक कुमार के लिए लोगों की दीवानगी ने देव आनंद को बहुत रोमांचित किया। ये देख उन्होंने फैसला कर लिया कि वो अगर विदेश जाकर पढ़ाई ना कर पाए, तो बतौर एक्टर ही अपना करियर बनाएंगे। उन्होंने ये सपना पूरा भी कर लिया लेकिन संघर्ष से खुद को बचा नहीं पाए।

खत ने बदल दी जिंदगी

देव आनंद को लगा था कि मुंबई आने पर बहुत ज्यादा संघर्ष नहीं करना पड़ेगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ। यहां आने पर उन्होंने कई डायरेक्टर और प्रोड्यूसर के घर के चक्कर लगाए। उम्मीद थी कि कहीं काम मिल जाएगा। वक्त के साथ उनके पास पैसे भी खत्म हो गए। तंगी का दौर शुरू हो गया। खुद को जिंदा रखने के लिए उन्होंने कभी स्टाम्प कलेक्शन के एल्बम को बेच गुजारा किया तो कभी क्लर्क की नौकरी की।

इसी बीच उन्हें ब्रिटिश आर्मी के सेंसर ऑफिस में काम मिल गया। वहां उनका काम सेना के अधिकारियों के लिखे लेटर्स को पोस्ट करने से पहले पढ़ने का था। ब्रिटिश सरकार अपने अधिकारियों के खतों को भी सेंसर करती थी, ताकि कोई गोपनीय सूचना बाहर न जा सके। हालांकि, ज्यादातर चिट्ठियां वो ही होती थीं जो सेना के जवान अपनी पत्नी या प्रेमिकाओं को लिखा करते थे। इस काम में उनका मन रम गया था, क्योंकि उन खतों को पढ़ना उन्हें बहुत अच्छा लगता था।