श्रीलंका की आर्थिक बदहाली ने वैश्विक राजनीति में एक नई करवट ली है। लंबे समय से चीन ने इस छोटे से द्वीपीय राष्ट्र को अपने कर्ज के जाल में फंसाकर अपनी रणनीतिक बढ़त बनाए रखने की कोशिश की थी, लेकिन अब उसी नीति का खामियाजा उसे भारी नुकसान के रूप में भुगतना पड़ रहा है। श्रीलंका के बाहरी ऋण पुनर्गठन के चलते बीजिंग को 7 अरब डॉलर का झटका लगा है, और अब स्थिति इतनी गंभीर हो गई है कि उसे भारत से सहयोग मांगना पड़ रहा है।
श्रीलंका, जो पिछले कुछ वर्षों से गहरे आर्थिक संकट में डूबा था, उसे अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) के बेलआउट प्लान के तहत अपने विदेशी कर्ज को पुनर्गठित करना पड़ा। इस प्रक्रिया में कई देशों ने अपनी वित्तीय शर्तें लागू कीं, लेकिन चीन की स्थिति सबसे कमजोर साबित हुई। श्रीलंका का सबसे बड़ा कर्जदाता होने के बावजूद, बीजिंग की कूटनीतिक चालें इस बार विफल हो गईं, क्योंकि अन्य कर्जदाताओं—विशेष रूप से भारत और पेरिस क्लब के देशों—ने पारदर्शिता और न्यायसंगत शर्तों की मांग की। चीन, जिसने अब तक कई छोटे देशों को अपने कर्ज के जाल में उलझाकर भू-राजनीतिक नियंत्रण कायम किया था, इस बार खुद ही वित्तीय संकट में घिर गया है।
दिलचस्प बात यह है कि चीन, जिसने हमेशा अपनी आर्थिक शक्ति का प्रदर्शन किया है, अब उसी श्रीलंका संकट को सुलझाने के लिए भारत की ओर देख रहा है। भारत ने इस पूरे घटनाक्रम में एक सहयोगी पड़ोसी की भूमिका निभाई है, जिसने बिना किसी छिपी शर्तों के श्रीलंका की सहायता की। भारत की ‘नेबरहुड फर्स्ट’ नीति ने उसे श्रीलंका में न केवल एक मजबूत आर्थिक साझेदार बनाया, बल्कि चीन के आक्रामक निवेश मॉडल के मुकाबले कहीं अधिक विश्वसनीय भी साबित किया।
यह पूरा मामला इस तथ्य को रेखांकित करता है कि केवल वित्तीय शक्ति के बल पर किसी देश पर प्रभाव स्थापित नहीं किया जा सकता। भारत ने जहां आपसी विश्वास और सहयोग की नीति अपनाई, वहीं चीन का एकपक्षीय और स्वार्थी दृष्टिकोण उसे महंगा पड़ गया। अब सवाल यह है कि क्या चीन अपनी रणनीति में बदलाव करेगा, या फिर वही पुरानी गलतियों को दोहराएगा?
श्रीलंका का यह ऋण संकट चीन के लिए एक चेतावनी है कि उसकी ‘डेब्ट ट्रैप डिप्लोमेसी’ हमेशा कारगर नहीं होगी। दूसरी ओर, भारत का सहयोगात्मक रवैया न केवल श्रीलंका के लिए बल्कि संपूर्ण दक्षिण एशिया के लिए एक स्थायी और विश्वसनीय विकल्प बनकर उभरा है। यह देखना दिलचस्प होगा कि आने वाले वर्षों में यह क्षेत्रीय समीकरण कैसे बदलते हैं और श्रीलंका की वित्तीय स्थिरता में भारत और चीन की भूमिकाएं किस दिशा में जाती हैं।
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