प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार, जो अपनी स्थिरता और मजबूत नेतृत्व के लिए जानी जाती थी, अब अपने समर्थकों के बीच भी सवालों का सामना कर रही है। हाल ही में द अटलांटिक में प्रकाशित एक लेख ने इन चुनौतियों को उजागर किया है। यह लेख दिखाता है कि कैसे अधूरे आर्थिक वादे और राजनीतिक प्राथमिकताएं सरकार के प्रति असंतोष को बढ़ा रही हैं।
आर्थिक मोर्चे पर विफलता?
मोदी सरकार 2014 में “सबका साथ, सबका विकास” के नारे के साथ सत्ता में आई। हालांकि, पिछले वर्षों में प्रमुख आर्थिक वादों को लेकर निराशा बढ़ी है।
1. रोजगार संकट: युवाओं को रोजगार के वादे किए गए थे, लेकिन बेरोजगारी दर रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गई है।
2. कृषि सुधार: किसानों की आय दोगुनी करने का वादा भी अभी तक अधूरा है, जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में असंतोष बढ़ा है।
3. महंगाई और कीमतें: ईंधन और खाद्य पदार्थों की बढ़ती कीमतों ने आम जनता की जेब पर भारी असर डाला है।
राजनीति बनाम विकास
आलोचक कहते हैं कि सरकार ने विकास के बजाय धार्मिक और सांप्रदायिक मुद्दों पर अधिक ध्यान दिया है।
ध्रुवीकरण का आरोप: विभिन्न समुदायों के बीच बढ़ते तनाव को लेकर विपक्ष लगातार सरकार पर निशाना साधता रहा है।
विधानसभा चुनाव में झटके: हाल के चुनाव परिणामों ने इस बात की ओर इशारा किया कि जनता के बीच सरकार की लोकप्रियता कम हो रही है।
सकारात्मक प्रयास
सरकार की कुछ योजनाएं, जैसे उज्ज्वला योजना, डिजिटल इंडिया, और पीएम किसान सम्मान निधि, निश्चित रूप से प्रभावी रही हैं। लेकिन आलोचकों का कहना है कि इन योजनाओं की सफलता व्यापक आर्थिक सुधारों की कमी को नहीं छिपा सकती।
आगे की राह
प्रधानमंत्री मोदी के लिए यह समय आत्ममंथन का है। उन्हें आर्थिक और सामाजिक सुधारों को प्राथमिकता देते हुए अपनी नीतियों में संतुलन लाना होगा।
1. नौकरी सृजन: औद्योगिक विकास और स्टार्टअप्स को बढ़ावा देकर युवाओं को रोजगार देना आवश्यक है।
2. महंगाई पर नियंत्रण: आवश्यक वस्तुओं की कीमतों को नियंत्रित करना जनता के भरोसे को फिर से हासिल कर सकता है।
3. विकास पर फोकस: धार्मिक और सांस्कृतिक मुद्दों के साथ-साथ बुनियादी ढांचे और शिक्षा पर जोर देना होगा।
निष्कर्ष
मोदी सरकार के सामने अब बड़ी चुनौती है। क्या वह असंतोष को दूर करते हुए 2025 और उसके बाद भी अपनी लोकप्रियता बनाए रख पाएगी?
यह देखना होगा कि प्रधानमंत्री मोदी अपने समर्थकों की उम्मीदों पर खरे उतरते हैं या असंतोष की यह लहर उनकी विरासत को चुनौती देती है।
“विकास और विश्वास, दोनों को एक साथ साधने की कला ही नेतृत्व की पहचान है।”
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