आईटीडीसी इंडिया ईप्रेस/आईटीडीसी न्यूज़ भोपाल : ‘हर कहानी का हीरो शाहरुख खान नहीं होता है … कभी कभी आपकी तरह, मेरी तरह, एक आम इंसान भी अपनी कहानी का हीरो होता है। ये सिर्फ संजय मिश्रा के फिल्म के डायलॉग नहीं हैं, उनकी जिंदगी की कहानी बयां करते कुछ शब्द भी हैं। आज की स्ट्रगल स्टोरी में अपनी कहानी सुना रहे हैं संजय मिश्रा।

वैसे तो संजय किसी इंट्रोडक्शन के मोहताज नहीं, लेकिन हर कोई उन्हें ‘ऑफिस-ऑफिस’ के ‘शुक्ला’ के तौर पर जानता है, तो कोई ‘धमाल’ के ‘बाबू भाई’ के तौर पर और कोई ‘आंखो देखी’ के ‘राजेश बाऊजी’ के रूप में।

जब दैनिक भास्कर की टीम स्ट्रगल स्टोरी के लिए संजय मिश्रा से बात करने पहुंची, तो दोपहर का वक्त हो रहा था। उनकी भाषा में कहें तो वो पूरा माहौल बनाकर बैठे थे। उन्होंने बातचीत की शुरुआत में ही कहा देख तू ज्यादा इमोशनल बातें मत करना मैं तुझे जानता हूं।

मैंने कहा आप लोगों को इंस्पायर करते हो आपकी कहानी आपके बचपन से शुरू करते हैं। जब संजय जी ने देखा कि अब उनके हिसाब का माहौल बन गया है तो अपने संघर्ष की कहानी बताने लगे।

बचपन से ही पढ़ाई में कोई इंट्रेस्ट नहीं था

मेरा बचपन बाकी आम बच्चों जैसा ही साधारण था। जब शाम को पापा के घर आने का समय होता था, तो हम सभी पढ़ाई करने बैठ जाते थे। सच कहूं तो मुझे शुरुआत से ही पढ़ाई में ज्यादा इंट्रेस्ट नहीं था। दरअसल मुझे पसंद नहीं है कि कोई मुझे कुछ सिखाए। मैं जीवन में सब कुछ अपने अनुभव से सीखना चाहता हूं।

मेरा जन्म बिहार के दरभंगा में हुआ था। मेरे पिता प्रेस इन्फॉर्मेशन ब्यूरो में सरकारी कर्मचारी थे। मेरे दादा जी इंडियन सिविल सर्वेंट थे। मेरे पिता जी का ट्रांसफर बनारस हो गया था। मैंने वहां के केंद्रीय विद्यालय बीएचयू से अपनी प्राइमरी शिक्षा की शुरुआत की थी। खैर ये अलग बात थी कि मुझे पढ़ाई में ज्यादा इंट्रेस्ट नहीं था। जीवन में बदलाव तब आया जब पापा का ट्रांसफर दिल्ली हो गया।

मैंने पापा से कह दिया मुझसे पढ़ाई नहीं होगी

एक बार मैं कई दिनों तक स्कूल नहीं गया। टीचर ने पापा से कहा कि संजय मेडिकल लेकर आएगा तो उसे बैठने देंगे। मैंने पापा से कहा कि मुझसे पढ़ाई नहीं होगी और न ही मैं स्कूल जाऊंगा। मैं घर गया मम्मी के पर्स से 50 रुपए चुराकर भाग गया।

मैं बाजार में घूम रहा था तभी मैंने देखा कुछ लोग बैठकर जुआ खेल रहे हैं। मैं कुछ देर तक खड़ा होकर देखता रहा। कुछ देर बाद मैं खेल को थोड़ा बहुत समझ चुका था। जब मैं जुआ खेलकर घर लौटा तो मेरे पास 500 रुपए थे। मेरे पापा ने आकर मुझसे कहा संजय जब इतना दिमाग है तो 10वीं भी पास कर लो।

एक दिन पापा बहुत उदास बैठे थे। उनके ऑफिस के एक दोस्त मनोहर श्याम जोशी ने पापा से कहा, शंभू क्यों उदास बैठे हो? पापा ने कहा संजय को लेकर परेशान हूं। सब कुछ बहुत अच्छा है, लेकिन वो पढ़ाई नहीं करना चाहता है। मनोहर श्याम जोशी ने मेरी कुंडली देखी और पापा से बोला उसे कहां फंसा रहे हो। इसी शास्त्री भवन में नालायक चपरासी बनकर रह जाएगा।

‘भरोसा रखो एक दिन तुम इसके नाम से जाने जाओगे। बाद में पापा समझ गए थे कि मैं पढ़ाई तो नहीं कर पाऊंगा।

एक्टिंग का कीड़ा बचपन से मेरे अंदर था

एक्टिंग का कीड़ा मेरे अंदर बचपन से था। कोई पकड़ ही नहीं पा रहा था। जब परिवार के साथ दिल्ली गया, तो कई लोगों ने नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा के बारे में बताया। मैंने सुना वहां पढ़ाई नहीं होती। 3 साल तक बच्चों को एक्टिंग सिखाते हैं। पहले मुझे लगा 3 साल तक सिखाएंगे तो मैं बोर हो जाऊंगा।

बहुत सोचने के बाद मैंने वहां का एंट्रेंस एग्जाम दिया। एंट्रेंस टेस्ट में मैं टॉप पर था। जब पढ़ाई शुरू हुई तो मैं सबसे पीछे हो गया। मुझे वहां बहुत कुछ सीखने को मिला। मेरे सीनियर इरफान खान थे। मेरी क्लास में तिग्मांशु धूलिया और इंडस्ट्री के कई लोग थे।