भारत की न्यायपालिका, संविधान का संरक्षक और लोकतंत्र का आधार स्तंभ, हाल के वर्षों में कई चुनौतियों का सामना कर रही है। यह संस्थान अपने न्यायिक फैसलों और स्वतंत्रता के लिए जाना जाता है, लेकिन लंबित मामलों की बढ़ती संख्या, पारदर्शिता की कमी और धीमी न्याय प्रक्रिया जैसे मुद्दों ने इसकी कार्यप्रणाली पर सवाल उठाए हैं।
लंबित मामलों की समस्या
देश में लाखों मामले दशकों से लंबित हैं। राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड के अनुसार, विभिन्न न्यायालयों में 4.5 करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं। इसका सीधा प्रभाव आम आदमी पर पड़ता है, जो न्याय के लिए वर्षों तक इंतजार करता है।
पारदर्शिता और जवाबदेही की कमी
न्यायपालिका की स्वतंत्रता उसकी ताकत है, लेकिन इसकी जवाबदेही का अभाव चिंता का विषय है। न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया, खासतौर पर कॉलेजियम प्रणाली, पर पारदर्शिता की कमी के आरोप लगते रहे हैं।
न्यायिक सुधार की आवश्यकता
1. डिजिटलीकरण: कोर्ट की कार्यवाही और दस्तावेजों का डिजिटलीकरण तेज़ी से लंबित मामलों के निपटारे में मददगार हो सकता है।
2. लोक अदालतों का विस्तार: वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR) जैसे तंत्रों को बढ़ावा देकर छोटे मामलों को तेज़ी से हल किया जा सकता है।
3. जजों की नियुक्ति में सुधार: कॉलेजियम प्रणाली की समीक्षा और एक पारदर्शी प्रक्रिया सुनिश्चित करना आवश्यक है।
4. फास्ट-ट्रैक कोर्ट: गंभीर अपराधों और महत्वपूर्ण मामलों के लिए फास्ट-ट्रैक कोर्ट की स्थापना न्याय की गति बढ़ा सकती है।
निष्कर्ष
भारतीय न्यायपालिका में सुधार न केवल जनता के विश्वास को पुनर्स्थापित करेगा, बल्कि लोकतंत्र को और मजबूत करेगा। न्याय में देरी, न्याय से इनकार के समान है, और यही कारण है कि सुधार समय की मांग है। सरकार और न्यायपालिका को मिलकर इन समस्याओं का समाधान करना चाहिए ताकि संविधान के इस स्तंभ की ताकत बनी रहे।
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