बुरहानपुर दो चीजों के लिए मशहूर है, एक ऐतिहासिक स्थल और दूसरा मावा जलेबी। इस बार हम जायका में आपको मावा जलेबी के बनने और बढ़ने की कहानी बताएंगे। इस जलेबी का स्वाद मायानगरी मुंबई तक पहुंचा और वहीं विदेशों तक। गुलाब जामुन को जलेबी के रूप में बेचने के बेतुके ख्याल से मावा जलेबी का जन्म हुआ।

बुरहानपुर मावा जलेबी सेंटर के संस्थापक संचालक हाजी करीम खत्री बताते हैं कि उन दिनों वे ठेले पर जलेबी और अन्य मिठाइयां बेचा करते थे। बात 1984 की है। एक दिन सोचा कि काश जलेबी में गुलाब जामुन जैसा स्वाद होता तो कैसा लगता। फिर अगले ही दिन यह प्रयोग किया। मैंने गुलाब जामुन के मिश्रण को थोड़ा पतला किया और उसे जलेबी की तरह बनाकर सेंकने लगा। जब बनाकर एक दो लोगों को टेस्ट कराया तो इसका शानदार स्वाद लेकर वे उछल पड़े। फिर मैंने भी ये जलेबी खाई, तो मुझे भी बेहतरीन स्वाद लगा।

लोगों ने सलाह दी कि इसे नई मिठाई के रूप में बेचा जा सकता है। तब तक हमने सोचा नहीं था कि इसका क्या नाम देंगे, चूंकि इसमें ज्यादातर मावा ही मिलाया जाता था, तो इसका नाम मावा जलेबी पड़ गया। तब से इसे बुरहानपुर वालों की मावा जलेबी कहा जाने लगा। इसके फेमस होने के बाद दूसरे लोगों ने भी इसी नाम से दुकानें खोलीं, लेकिन असली मावा जलेबी हाजी करीम खत्री ही बनाते हैं और बेचते हैं।

1992 में बनाई दुकान

हाजी करीम ने बताया कि 1992 से पहले तक दुकान के बाहर ठेला लगाया करता था। 1992 में दुकान बनाई जो काफी छोटी थी, धीरे-धीरे व्यापार बढ़ने पर पास की एक दुकान भी खरीदकर दोनों को एक कर लिया, तब से ही यह दुकान चल रही है।

2004 में मायानगरी में शुरू की ब्रांच

हाजी करीम बताते हैं कि मुंबई का देश में नहीं पूरी दुनिया में नाम है। मैं चाहता था, वहां भी मेरी एक दुकान हो। फिर हमने 2004 में मुंबई में एक दुकान खोली जो मोहम्मद अली रोड पर मीनारा मस्जिद के पास है। उस समय मुंबई के लोगों ने भी मावा जलेबी नहीं देखी थी। लोग कहते थे कि यह काला-काला क्या है भाई। कई दिन तक लोगों को सैंपल भी दिया, लेकिन जब उन्होंने मावा जलेबी का स्वाद चखा तो अच्छा रिस्पाॅन्स मिला। फिर माउथ पब्लिसिटी ने हमारी दुकान में भीड़ बढ़ा दी।

ऐसी जलेबी और कहीं नहीं मिलती

इकबाल चौक स्थित बुरहानपुर की मावा जलेबी पर प्रतिदिन ग्राहकों की भीड़ रहती है। बाहर से आने वाले लोग भी यहां के जायके के कायल हैं। नाशिक से आए हसीब उद्दीन ने कहा- मैं पूरे हिन्दुस्तान में घूमा हूं, लेकिन ऐसी जलेबी कहीं नहीं खाई।

मैदे में थोड़ा-थोड़ा पानी डालते घोलते हैं

मावा जलेबी बनाने के लिए सबसे पहले मैदे में थोड़ा-थोड़ा पानी डालते हुए उसे घोला जाता है। मैदा तब तक फैंटा जाता है जब तक कि इसमें से गांठे खत्म न हो जाएं। घोल को खूब फैंटकर गरम जगह पर ढककर रख दिया जाता है। मावे में दूध डालकर, मसल मसल कर एक दम नरम किया जाता है। फिर इसे कपड़े में डालकर इसकी जलेबी बनाई जाती है।

जल्द मिलने वाला है जीआई टैग

बुरहानपुर की मावा जलेबी को जल्द ही जीआई टैग मिलने वाला है। इसकी प्रोसेस काफी समय से चल रही है, जो जल्द ही खत्म हाेगी। जीआई टैग, क्यों मिलता है एक प्रकार का जियोग्राफिकल इंडिकेशंस टैग का लेबल होता है। इसमें उस क्षेत्र के प्रोडक्ट को विशेष भौगोलिक पहचान दी जाती है। संसद में 1999 में रजिस्ट्रेशन एंड प्रोटेक्शन एक्ट के तहत जियोग्राफिकल इंडिकेशंस ऑफ गुड्स लागू किया गया था। जिसके तहत देश में पाई जाने वाली ऐसी विशिष्ठ वस्तुओं को कानूनी अधिकार दिया जाता है जिससे उस वस्तु का गलत उपयोग रोका जा सके।

कौन देता है जीआई टैग

भारत सरकार के उद्योग एवं वाणिज्य मंत्रालय की शाखा डिपार्टमेंट ऑफ इंडस्ट्री प्रमोशन एंड इंटरनल ट्रेड की ओर से जीआई टैग दिया जाता है। बुरहानपुर की मावा जलेबी की एक अलग पहचान बन गई है। इसी आधार पर उसे यह टैग मिलने वाला है। इसके लिए सबसे पहले चैन्नई स्थित जीआई डाटा बेस में आवेदन करना होता है। देश में कईं ऐसी वस्तुएं, खाद्य पदार्थ हैं जिनको जीआई टैग दिया गया है।

राहुल हो या शिवराज सब को पसंद है मावा जलेबी

हाल ही में भारत जोड़ो यात्रा लेकर बुरहानपुर आए कांग्रेस नेता राहुल गांधी को भी बुरहानपुर की जलेबी परोसी गई थी। मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान दो बार चुनाव के समय बुरहानपुर की मावा जलेबी का स्वाद चख चुके हैं। तीन माह पहले हुए नगर निगम चुनाव में प्रचार के लिए आए एआईएमआईएम के प्रमुख असदुद्दीन औवेसी ने भी बुरहानपुर की मावा जलेबी खाई थी। बाद में उन्होंने मंच से कहा था चुनाव जीते तो बुरहानपुर की मावा जलेबी खाने आऊंगा।