इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जस्टिस यशवंत वर्मा को लेकर सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिया गया हालिया निर्देश न्यायिक प्रणाली की पारदर्शिता, गरिमा और जवाबदेही पर एक अहम विमर्श छेड़ता है। सर्वोच्च न्यायालय ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को स्पष्ट निर्देश दिया है कि जस्टिस वर्मा को किसी भी प्रकार का न्यायिक कार्य न सौंपा जाए। यह निर्देश अपने आप में असाधारण और असामान्य है, क्योंकि यह न केवल किसी न्यायाधीश की कार्यप्रणाली पर गंभीर प्रश्न उठाता है, बल्कि पूरी न्यायपालिका की संस्थागत प्रतिष्ठा पर भी विचार करने को विवश करता है।
न्यायपालिका लोकतंत्र का तीसरा स्तंभ है और उसकी सबसे बड़ी शक्ति है – जनता का विश्वास। जब कोई न्यायाधीश अपनी निष्पक्षता, न्यायिक विवेक या मर्यादा से जुड़े सवालों में उलझता है, तो केवल उसका व्यक्तिगत आचरण ही नहीं, बल्कि समूची व्यवस्था की विश्वसनीयता प्रभावित होती है। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट द्वारा उठाया गया कदम यह संकेत देता है कि न्यायपालिका स्वयं को भी जांच और अनुशासन के दायरे में रखती है। यह संदेश भी स्पष्ट होता है कि यदि कोई न्यायिक पदाधिकारी आचरण या जिम्मेदारियों में शंका के घेरे में आता है, तो उसके खिलाफ पारदर्शी व संस्थागत कार्रवाई की जाएगी।
इस निर्देश का विस्तृत कारण भले ही सार्वजनिक रूप से न बताया गया हो, परंतु इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि उच्चतम न्यायालय ने विषय की गंभीरता को समझते हुए तुरंत कदम उठाया है। यह एक प्रकार से आत्मसंशोधन की प्रक्रिया का प्रतीक है – जिसमें संस्थाएं स्वयं को शुद्ध और उत्तरदायी बनाए रखने के लिए कठोर निर्णय लेने से भी नहीं हिचकतीं।
इस मामले में एक और महत्वपूर्ण पहलू है – न्यायिक कार्य सौंपने या न सौंपने का अधिकार किसके पास है, और उसके पीछे क्या प्रक्रियाएं अपनाई जाती हैं। सुप्रीम कोर्ट का यह निर्देश हाई कोर्ट की प्रशासनिक स्वतंत्रता के दायरे में हस्तक्षेप के रूप में नहीं, बल्कि एक उच्चतर न्यायिक निगरानी के रूप में देखा जाना चाहिए। यह न्यायिक उत्तरदायित्व और संतुलन का उदाहरण है, जहां न्यायपालिका का उच्च स्तर, निचले स्तर की कार्यप्रणाली पर आवश्यक दिशा-निर्देश देता है।
यह समय है जब न्यायपालिका, प्रशासन और समाज – तीनों को मिलकर यह सुनिश्चित करना होगा कि न्याय केवल किया ही न जाए, बल्कि उसे होते हुए दिखाया भी जाए। न्यायिक संस्थानों की साख तभी बची रह सकती है, जब वे अपने भीतर उठ रहे किसी भी संकट का समाधान आत्मनिरीक्षण और दृढ़ निर्णयों से करें।
इस संदर्भ में, जस्टिस यशवंत वर्मा से जुड़े प्रकरण का निष्कर्ष जो भी हो, यह महत्वपूर्ण है कि पूरा घटनाक्रम निष्पक्षता और न्याय की कसौटी पर खरा उतरे। साथ ही, यह भी ज़रूरी है कि इस प्रक्रिया में न्यायिक गरिमा बनी रहे और किसी भी प्रकार की अफवाह या राजनीतिक हस्तक्षेप से पूरी प्रक्रिया सुरक्षित रहे।
यदि लोकतंत्र को मज़बूत बनाए रखना है, तो उसकी न्यायिक शाखा को हर समय सतर्क, पारदर्शी और आत्म-संशोधित रहने की आवश्यकता है। यही इस मामले से निकलने वाला सबसे बड़ा सबक है।
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