- प्रधानमंत्री का भाषण: मौन पर विराम, साहस का उद्घोष
बीते कई दशकों से भारत ने सीमावर्ती आतंकवाद के प्रति संयम, शांति और कूटनीति का मार्ग चुना। परंतु कल रात प्रधानमंत्री द्वारा ‘सिंदूर अभियान’ पर दिया गया भाषण इस परिपाटी का निर्णायक अंत प्रतीत होता है। “परमाणु ब्लैकमेल काम नहीं करेगा”— यह एक वाक्य न केवल भारत के बदले हुए रुख का प्रतीक है, बल्कि यह उस चुप्पी का अंत है जिसे दुनिया लंबे समय से भारत की कमजोरी समझती रही।
- सैनिक सफलता नहीं, राष्ट्रीय संकल्प
प्रधानमंत्री ने बहावलपुर और मुरिदके जैसे आतंकवाद के गढ़ों पर हुए सर्जिकल प्रहार को सिर्फ एक “मिलिट्री अचीवमेंट” नहीं बताया, बल्कि इसे राष्ट्रीय चेतना का प्रतीक करार दिया। यह दर्शाता है कि अब आतंकवाद पर जवाबदेही केवल सेना तक सीमित नहीं, बल्कि यह जनता, नीति और राष्ट्र की सामूहिक अपेक्षा बन चुकी है।
- नई नीति: रक्षात्मक से आक्रामक रणनीति की ओर
‘सिंदूर अभियान’ भारत की सुरक्षा रणनीति में एक ऐतिहासिक मोड़ है। यह नीतिगत बदलाव दर्शाता है कि भारत अब केवल हमला सहने वाला नहीं, बल्कि समय आने पर निर्णायक प्रतिक्रिया देने में सक्षम राष्ट्र है। यह परिपक्व लोकतंत्र की नई परिभाषा है—जहां युद्ध का उत्तर संयम से है, पर चुप्पी अब कमजोरी नहीं।
- राजनयिक और आर्थिक दायरे में सुरक्षा की पुनर्संरचना
प्रधानमंत्री ने यह भी इंगित किया कि युद्ध के मैदान में सफलता तभी पूर्ण होगी जब हम कूटनीतिक और आर्थिक क्षेत्रों में भी समान चतुराई और संयम बरतें। केवल शस्त्रों से नहीं, भारत को अब शब्दों और समझौतों से भी अपनी स्थिति मजबूत करनी होगी।
- स्थिरता और शांति के लिए संयम की परीक्षा
जहां यह अभियान आतंकवाद को स्पष्ट चेतावनी है, वहीं अब असली चुनौती यह है कि भारत इस जीत के बाद कितना संयम रख पाता है। क्या हम जवाब देने की शक्ति के साथ संवाद बनाए रख सकते हैं? क्या हम पड़ोसी देशों को धमकाने के बजाय उन्हें संलग्न कर सकते हैं?
- वैश्विक मंच और क्षेत्रीय सहयोग की भूमिका
‘सिंदूर अभियान’ ने भारत के आत्मविश्वास को दुनिया के सामने रखा है। अब भारत को चाहिए कि वह इस साहसिक नीति को अंतरराष्ट्रीय वैधता और क्षेत्रीय सहयोग से और सुदृढ़ करे। यह आवश्यक है कि हम केवल युद्ध नहीं, बल्कि शांति निर्माण की भी अगुवाई करें।
निष्कर्ष:
‘सिंदूर अभियान’ केवल एक सैन्य कार्रवाई नहीं—यह भारत की बदली हुई नीति, आत्मविश्वास और स्पष्ट दिशा का प्रतिनिधित्व करता है। चुप्पी अब रणनीति नहीं, बल्कि जवाबदेही का विकल्प बन गई है। अब यह भारत पर निर्भर है कि वह इस नीति को केवल विजय तक सीमित न रखे, बल्कि उसे दीर्घकालिक शांति की ओर ले जाए।
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