इन्फोसिस ने हाल ही में मैसूर स्थित अपने ट्रेनिंग सेंटर से सैकड़ों फ्रेशर्स को बाहर का रास्ता दिखा दिया। कारण बताया गया – कोडिंग टेस्ट में प्रदर्शन ठीक नहीं था। लेकिन इस ‘परफॉर्मेंस-आधारित टर्मिनेशन’ के पीछे की परतें कहीं गहरी हैं। ये केवल स्किल्स की बात नहीं, बल्कि उस सिस्टम पर सवाल है जो फ्रेशर्स को सिर्फ आंकड़ों के रूप में देखता है।
1. क्या हुआ मैसूर ट्रेनिंग सेंटर में?
सैकड़ों युवा जो कैंपस प्लेसमेंट के जरिए चुने गए थे, उन्हें महीनों इंतज़ार के बाद ट्रेनिंग के लिए बुलाया गया। कोडिंग और तकनीकी परीक्षाओं में ‘कमज़ोर प्रदर्शन’ बताकर उन्हें बाहर कर दिया गया, वो भी बिना दोबारा मौका दिए।
2. परीक्षा या बहाना?
इन्फोसिस का कहना है कि ये ‘नियमित मूल्यांकन प्रक्रिया’ का हिस्सा था। लेकिन कई छात्रों का आरोप है कि उन्हें तैयारी का समय नहीं मिला, और ना ही कोई दोबारा प्रयास की अनुमति दी गई। सवाल ये है—क्या ये सही तरीका है एक करियर की शुरुआत करने का?
3. शिक्षा बनाम उद्योग की खाई
अधिकतर फ्रेशर्स नॉन-सीएस या टियर 2/3 कॉलेजों से आते हैं। वहाँ की शिक्षा प्रणाली और इंडस्ट्री की अपेक्षाओं में ज़मीन-आसमान का अंतर है। ये टर्मिनेशन उस अंतर की सजा बन गया।
4. ऑफर लेटर से नौकरी तक का लंबा इंतज़ार
कई छात्रों को ऑफर लेटर मिलने के बाद 6–12 महीने तक इंतज़ार करना पड़ा। इस दौरान कोई नियमित गाइडेंस या अभ्यास प्रणाली नहीं थी। कईयों की स्किल्स जंग खा गईं, और उसका खामियाजा उन्हें नौकरी गंवाकर चुकाना पड़ा।
5. क्या ये ‘ओवरहायरिंग’ का नतीजा है?
आशंका जताई जा रही है कि कंपनियों ने पिछले साल बड़ी संख्या में हायरिंग की और अब जब प्रोजेक्ट्स की मांग नहीं बढ़ी, तो “परफॉर्मेंस” के नाम पर कटौती की जा रही है। यह टर्मिनेशन शायद छुपा हुआ ‘सॉफ्ट लेऑफ’ है।
6. भविष्य के लिए सबक
छात्रों के लिए: केवल प्लेसमेंट पर निर्भर न रहें। कोडिंग, लॉजिक और सॉफ्ट स्किल्स की तैयारी अभी से शुरू करें।
कॉर्पोरेट्स के लिए: फ्रेशर्स को डिस्पोजेबल टैलेंट नहीं, बल्कि दीर्घकालिक निवेश समझें।
शिक्षा संस्थानों के लिए: पाठ्यक्रम को जमीनी हकीकत के करीब लाएं।
सरकार और समाज के लिए: युवाओं के साथ न्याय तभी होगा जब सिस्टम पारदर्शी, सहयोगी और सहनशील हो।
निष्कर्ष यही है कि भारत अगर ‘डिजिटल टैलेंट की राजधानी’ बने रहना चाहता है, तो उसे अपने युवाओं के आत्म-सम्मान, धैर्य और विकास को प्राथमिकता देनी होगी। इन्फोसिस जैसे संस्थानों की भूमिका यहाँ निर्णायक हो सकती है—या तो वे सिर्फ कोडिंग टेस्ट लेंगे, या विश्वास का इम्तिहान भी पास करेंगे।
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