भारत, जो हाल ही में दुनिया की सबसे तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में गिना जाता था, आज आर्थिक सुस्ती के एक गंभीर दौर से गुज़र रहा है। जीडीपी की 6.7% विकास दर भी उस उत्साह को नहीं लौटा पा रही है, जो कुछ वर्षों पहले था। देश की आर्थिक स्थिति अब हर वर्ग को प्रभावित कर रही है—चाहे वह ग्रामीण क्षेत्र का किसान हो या शहरी क्षेत्र का कारोबारी।

ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर नज़र डालें तो बढ़ती महंगाई, कृषि उत्पादन में गिरावट और घटती खरीद क्षमता ने संकट गहरा दिया है। छोटे किसान कर्ज के बोझ तले दबे हुए हैं, जबकि मजदूरी के अवसर सीमित हो रहे हैं। उधर, शहरी क्षेत्रों में रियल एस्टेट, ऑटोमोबाइल और खुदरा बाजारों में गिरती मांग साफ़ दिखाई देती है। हिंदुस्तान यूनिलीवर और रिलायंस रिटेल जैसी बड़ी कंपनियों के मुनाफे में आई कमी ने उपभोक्ता खर्च में गिरावट को स्पष्ट कर दिया है।

हालात की गंभीरता यह है कि उपभोक्ता अब केवल आवश्यक वस्तुओं तक सीमित हो गए हैं। विलासिता के सामान और गैर-आवश्यक वस्तुओं की बिक्री में भारी गिरावट आई है। यह स्थिति न केवल बाजार को प्रभावित करती है बल्कि देश की आर्थिक स्थिरता पर भी सवाल उठाती है।

सरकार ने कुछ पहल की हैं, जैसे पीएलआई योजना और पीएम गति शक्ति, लेकिन इनका असर दिखने में समय लगेगा। इसके अलावा, बुनियादी संरचनात्मक सुधारों की कमी स्पष्ट नज़र आ रही है। रोजगार सृजन और कृषि क्षेत्र में सुधार के बिना स्थिति में बड़ा बदलाव लाना मुश्किल होगा।

ऐसे में सरकार को नागरिकों के विश्वास को बहाल करने के लिए ठोस कदम उठाने होंगे। सामाजिक सुरक्षा योजनाओं और न्यूनतम आय समर्थन से संकटग्रस्त वर्ग को राहत दी जा सकती है। साथ ही, उद्योगों और नीतिकारों को दीर्घकालिक रणनीतियों पर ध्यान केंद्रित करना होगा।

भारत की आर्थिक सुस्ती एक चेतावनी है, लेकिन यह सुधार और विकास का अवसर भी हो सकता है। इसे केवल एक चुनौती मानने के बजाय, हमें इसे एक संभावना के रूप में देखना चाहिए। बेहतर नीतियां, मजबूत संरचना और नागरिकों की भागीदारी से भारत फिर से आर्थिक विकास के पथ पर अग्रसर हो सकता है।

“एक मजबूत भारत का निर्माण अब भी संभव है—आवश्यकता है केवल सही दिशा और सामूहिक प्रयास की।”

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