भारत और पाकिस्तान के बीच हालिया संघर्षविराम, जो अमेरिका की मध्यस्थता से संपन्न हुआ, ने एक बार फिर यह प्रश्न उठाया है कि क्या भारत को अपनी रणनीतिक स्वायत्तता को बनाए रखते हुए ही निर्णय लेने चाहिए। जहां एक ओर अमेरिका जैसे महाशक्ति की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, वहीं यह भी आवश्यक है कि भारत अपने दीर्घकालिक राष्ट्रीय हितों को समझे और किसी भी प्रकार के बाहरी दबाव के सामने न झुके।
मुख्य बिंदु
- अमेरिका की मध्यस्थता: लाभ या नुकसान?
राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप, उपराष्ट्रपति जेडी वेंस और विदेश मंत्री मार्को रुबियो की सक्रिय भूमिका इस समझौते में रही। लेकिन क्या यह मध्यस्थता भारत के हित में रही? संघर्षविराम की घोषणा के कुछ ही समय बाद भारत ने पाकिस्तान पर उल्लंघन के आरोप लगाए, जिससे यह स्पष्ट हुआ कि यह समाधान अस्थायी और दिखावटी है।
- रणनीतिक स्वायत्तता पर खतरा
भारत ने पिछले दशक में ‘नेबरहुड फर्स्ट’ और ‘एक्ट ईस्ट’ जैसी नीतियों के ज़रिए अपनी विदेश नीति को आत्मनिर्भर और संतुलित बनाया है। लेकिन इस संघर्षविराम के ज़रिए भारत की रणनीतिक स्वायत्तता पर प्रश्नचिह्न लग गया है।
- सीमित परिणाम, बढ़ती चिंताएं
यह संघर्षविराम एक दीर्घकालिक समस्या — आतंकवाद और सीमा पार घुसपैठ — का समाधान नहीं है। इसके बजाय, यह पाकिस्तान को एक बार फिर अंतरराष्ट्रीय मंच पर सामान्य देश की छवि गढ़ने का मौका देता है, जो भारत की सुरक्षा चिंताओं को कमजोर करता है।
- भारत को आत्मनिर्भर रणनीति अपनानी चाहिए
भारत को चाहिए कि वह अपनी विदेश नीति को किसी भी विदेशी शक्ति के इशारे पर संचालित न करे। अमेरिका जैसे देशों के हित क्षेत्रीय शांति से अधिक उनके वैश्विक एजेंडे से प्रेरित होते हैं।
- चेतावनी और सबक
इस संघर्षविराम से भारत को यह सिखना चाहिए कि बाहरी मध्यस्थता से प्राप्त समाधान सतही होते हैं। भारत को अपनी कूटनीति, सैन्य नीति और रणनीतिक संवाद में आत्मनिर्भरता और स्पष्टता बनाए रखनी चाहिए।
निष्कर्ष
भारत एक उभरती हुई वैश्विक शक्ति है और उसे अपनी विदेश नीति में किसी भी प्रकार की निर्भरता से बचना चाहिए। बाहरी मध्यस्थता से उत्पन्न हुए समाधान तात्कालिक राहत तो दे सकते हैं, पर वे स्थायी समाधान नहीं हैं। यह समय है जब भारत को अपने निर्णय अपने शर्तों पर लेने चाहिए — दृढ़, आत्मनिर्भर और राष्ट्रीय हितों के अनुरूप।
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