सीएनएन सेंट्रल न्यूज़ एंड नेटवर्क–आईटीडीसी इंडिया ईप्रेस / आईटीडीसी न्यूज़ भोपाल: हिंदी पत्रकारिता दिवस मनाते समय हम सवालों से घिरे हैं और जवाब नदारद हैं। पं.जुगुलकिशोर शुकुल ने जब कोलकाता से उदंत मार्तण्ड की शुरुआत की तो अपने प्रथम संपादकीय में अपनी पत्रकारिता का उद्देश्य लिखते हुए शीर्षक दिया – ‘हिंदुस्तानियों के हित के हेत’। यही हमारी पत्रकारिता का मूल्य हमारे पुरखों ने तय किया था। आखिर क्यों हम पर इन दिनों सवालिया निशान लग रहे हैं। हम भटके हैं या समाज बदल गया है?
कुछ दिनों पहले दिनों, देश के एक प्रतिष्ठित अंग्रेजी दैनिक द्वारा आयोजित एक सम्माकन समारोह में मुख्यं न्याययाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ ने कहा कि यदि किसी देश को लोकतांत्रिक रहना है, तो प्रेस को स्व तंत्र रहना चाहिए। जब प्रेस को काम करने से रोका जाता है, तो लोकतंत्र की जीवंतता से समझौता होता है। माननीय मुख्य न्यायाधीश, ऐसा कहने वाली पहली विभूति नहीं हैं। उनसे पहले भी कई बार कई प्रमुख हस्तियां प्रेस और मीडिया की स्वोतंत्रता को लेकर मिलते-जुलते विचार सार्वजनिक रूप से अभिव्यमक्ता कर चुकी हैं। मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंम्भे कहा जाता है, तो वह अकारण नहीं है। उसने समय-समय पर लोकतांत्रिक मूल्योंि और सामाजिक हितों की रक्षा के लिए बहुत काम किया है और इसके लिए बड़ी कीमत भी चुकाई है। इसके बदले उसे समाज का, लोगों का भरपूर विश्वा स और सम्माकन भी हासिल हुआ है। लेकिन दुर्भाग्य से बीते दो-तीन दशकों में यह विश्वास लगातार दरकता गया है, सम्माहन घटता गया है।
मीडिया की इस घटती प्रतिष्ठाआ और विश्वासनीयता के पीछे बहुत सारे कारण गिनाये जा सकते हैं। सबसे पहला तो यही है कि उदारीकरण की आंधी से पहले जिस मीडिया ने खुद को एक मिशन बनाए रखा था, उसने व्याधवसायिकता की चकाचौंध में बहुत तेजी से अपना ‘कॉरपोरेटाइजेशन’ कर लिया और खुद को ‘मिशन’ की बजाए खालिस ‘प्रोफेशन’ बना लिया। अब जब यह प्रोफेशन बना तो इसकी प्राथमिकताएं भी बदल गईं। ‘जन’ की जगह ‘धन’ साध्य बन गया। अधिक से अधिक मुनाफा कमाने के चक्कंर में मीडिया प्रतिष्ठा नों ने अपने तौर-तरीके पूरी तरह बदल लिए। ‘कंटेंट’ की बजाय उन्होंकने ‘आइटम’ पर ज्यािदा ध्या न देना शुरू कर दिया, ताकि रीडरशिप और टीआरपी में ज्या दा से ज्याोदा ऊंचाई पर पहुंचा जा सके। जितनी ज्यािदा ऊंचाई, उतना ज्याददा विज्ञापन राजस्व । उसमें भी भारी घालमेल। अधिकतर अखबार और टीवी चैनल, सामग्री की गुणवत्तान की बजाए आंकड़ों की बाजीगरी में अधिक भरोसा करने लगे। लेकिन, या तो उन्हों ने इस पर ध्याान नहीं दिया, या फिर परवाह नहीं की, कि इस पूरे चक्र में वे समाज और लोगों का भरोसा खो रहे हैं।
अब स्थिति यह है कि मीडिया तो लगातार विस्ताेर कर रहा है, लेकिन लोगों में उसकी विश्विसनीयता लगातार कम हो रही है। आज मीडिया के बहुत सारे रूप हैं। मनोरंजन को छोड़ दीजिए, तो रेडियो ज्याादा लोग सुनते नहीं, टीवी देखते नहीं, अखबार पढ़ते नहीं… अगर यह सब करते भी हैं, तो ये माध्यनम उनके मन में कोई सकारात्मतकता जगा पाने में सफल नहीं हो पाते। जबकि कालांतर में ऐसे असंख्यय अवसर आए हैं, जब मीडिया ने अपने सामाजिक और लोकतांत्रिक दायित्वोंा का भली-भांति निर्वहन किया है। विश्वईसनीयता के मामले में पत्रकारिता को दो वर्गों में बांटा जा सकता है। एक, 21 वीं सदी के आरंभ से पहले की पत्रकारिता और दूसरी इसके बाद की पत्रकारिता। पहले वर्ग में वह पत्रकारिता आती है जो समाज के लिए जयप्रकाश नारायण और विश्वदनाथ प्रताप सिंह जैसे नायकों को मजबूती प्रदान करती थी, भ्रष्टायचार के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करती थी, जनहित के लिए सत्ता की नाक में दम किए रहती थी। दूसरी पत्रकारिता वर्ष 2000 से बाद की पत्रकारिता है, जिसमें सनसनी है, स्टिंग हैं, मीडिया ट्रायल हैं, टीआरपी है, प्रायोजित यात्राएं हैं, निहित स्वाैर्थ हैं। अगर कुछ नहीं है, तो समाज का विश्वा स। अब कोई मीडिया की ओर नहीं देखता। लोग उससे कोई उम्मी द नहीं रखते, उस पर भरोसा नहीं करते। उनके लिए मीडिया पर प्रसारित सामग्री मनोरंजन की चीज बन चुकी है। हालांकि अखबार अभी इस स्थिति तक नहीं पहुंचे हैं, लेकिन धीरे-धीरे बढ़ इसी राह पर रहे हैं।
‘इसलिए अगर मीडिया के प्रति लोगों में, समाज में, विश्वाास की पुनर्बहाली करनी है, तो दोनों स्तुर पर प्रयास करना आवश्यिक है…क्योंमकि ताली एक हाथ से नहीं बजती।