हिंदी का इतिहास और विरोध की राजनीति
भारत में हिंदी भाषा का इतिहास और उसकी स्वीकार्यता के पीछे एक लंबा सफर रहा है। यह सफर कई उतार-चढ़ावों से भरा हुआ है, जहां हिंदी के प्रसार और विरोध की लहरें साथ-साथ चलती रही हैं।
1937 में भारत सरकार अधिनियम लागू होने के बाद हुए चुनावों में गांधी जी के नेतृत्व में कांग्रेस ने मद्रास प्रांत में सरकार बनाई। सी राजगोपालाचारी ने मुख्यमंत्री बनते ही हिंदी को प्राथमिक शिक्षा का माध्यम बनाने की पहल की। हालांकि, यह कदम दक्षिण भारत में तीव्र विरोध का कारण बना। इस विरोध के सूत्रधार रहे सी अन्नादुराई, जिनकी राजनीतिक विरासत आज भी द्रविड़ मुनेत्र कषगम (DMK) के रूप में जीवित है।
हिंदी विरोध धीरे-धीरे गैर-हिंदीभाषी राज्यों की राजनीति का हिस्सा बन गया। इसे वहां की क्षेत्रीय अस्मिता से जोड़कर देखा गया। लेकिन समय के साथ, यह विरोध केवल राजनीति तक सिमट गया, जबकि हिंदी ने बाजार, सिनेमा, और सोशल मीडिया जैसे माध्यमों के जरिये गैर-हिंदीभाषी क्षेत्रों में अपनी जड़े जमानी शुरू कर दीं।
हिंदी की स्वीकार्यता: बाजार और सिनेमा की भूमिका
राजनीति में विरोध के बावजूद हिंदी ने बाजार और मनोरंजन जगत के जरिये अपनी स्वीकार्यता बढ़ाई।
सिनेमा: बॉलीवुड ने हिंदी को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रिय बनाया। दक्षिण भारतीय फिल्में जब हिंदी में डब होकर प्रसारित होती हैं, तो उनकी पहुंच और बढ़ जाती है।
बाजार: डिजिटल युग में हिंदी में ई-कॉमर्स, विज्ञापन और कंटेंट की मांग तेजी से बढ़ी है। कंपनियां अब अपने उत्पादों का प्रचार हिंदी में कर रही हैं, जो गैर-हिंदीभाषी राज्यों में भी असरदार साबित हो रही है।
सोशल मीडिया: फेसबुक, ट्विटर और इंस्टाग्राम जैसे प्लेटफॉर्म पर हिंदी कंटेंट की बढ़ती मात्रा ने इसे आम लोगों की जुबान का हिस्सा बना दिया है।
मौजूदा सरकार के प्रयास
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने हिंदी के लिए कई महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं। गृह मंत्री अमित शाह ने हाल ही में केंद्रीय हिंदी समिति की बैठक में हिंदी को संपर्क भाषा बनाने और शिक्षा में मातृभाषा के इस्तेमाल पर जोर दिया।
सरकार की प्रमुख पहलें:
केंद्रीय हिंदी समिति:
समिति का उद्देश्य हिंदी साहित्य का संवर्धन और इसे राष्ट्रीय संपर्क भाषा के रूप में स्थापित करना है। हालांकि, नौकरशाही में अंग्रेजी का वर्चस्व अभी भी एक बड़ी बाधा है।
राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (NCERT):
परिषद ने ‘भारतीय भाषाओं में एकात्मकता’ और ‘बहुभाषिक व्याकरण’ पर काम शुरू किया है।
इन परियोजनाओं का लक्ष्य भारतीय भाषाओं के बीच भेदभाव को समाप्त करना और भाषा सीखने की प्रक्रिया को सरल बनाना है।
हिंदी शब्दसिंधु शब्दकोश:
गृह मंत्रालय के अधीन यह परियोजना हिंदी के शब्द भंडार को समृद्ध करने और भारतीय भाषाओं के बीच सामंजस्य बनाने पर काम कर रही है।
राजभाषा सम्मेलन:
देशभर में राजभाषा के महत्व को समझाने के लिए सम्मेलन आयोजित किए जा रहे हैं। इनका उद्देश्य हिंदी को केवल संपर्क भाषा नहीं, बल्कि विचार और संवाद की मुख्य धारा का हिस्सा बनाना है।
हिंदी विरोध के बावजूद उसकी ताकत
हिंदी को विरोध की राजनीति से अलग रखकर देखा जाए, तो इसके पास देश को एकजुट करने की ताकत है।
संपर्क भाषा: हिंदी देशभर में एकमात्र ऐसी भाषा है, जो सबसे अधिक लोगों को आपस में जोड़ती है।
भारतीय भाषाओं का आधार: हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में गहरा संबंध है। भाषाई एकात्मकता के जरिये यह दूरी और भी कम हो सकती है।
अंतरराष्ट्रीय मंच: हिंदी अब वैश्विक मंचों पर भी अपनी पहचान बना रही है। हाल के वर्षों में संयुक्त राष्ट्र में हिंदी में भाषण और हिंदी सिनेमा का विस्तार इसका उदाहरण है।
भविष्य की चुनौतियां और संभावनाएं
हिंदी को उसकी सही जगह दिलाने के लिए अभी भी कई चुनौतियां हैं:
नौकरशाही में अंग्रेजी का प्रभुत्व:
हिंदी को प्रशासनिक और नीतिगत चर्चाओं में स्थान देना जरूरी है।
शैक्षणिक सुधार:
मातृभाषा में शिक्षा को बढ़ावा देकर हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को मजबूत किया जा सकता है।
राजनीतिक सहमति:
गैर-हिंदीभाषी राज्यों में हिंदी विरोध को खत्म करने के लिए राजनीतिक संवाद जरूरी है।
सामाजिक जागरूकता:
हिंदी को केवल एक भाषा के रूप में नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक पहचान के रूप में देखना होगा।
निष्कर्ष
हिंदी का सफर विरोध और स्वीकृति की राजनीति के बीच संतुलन बनाते हुए आगे बढ़ रहा है। मौजूदा सरकार की पहल ने हिंदी को नई दिशा दी है। अगर प्रशासनिक और शैक्षणिक स्तर पर इसके लिए और ठोस कदम उठाए जाएं, तो यह केवल संपर्क भाषा नहीं, बल्कि राष्ट्रीय अस्मिता का प्रतीक बन सकती है।
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