इटली में आयोजित होने जा रहे आगामी G7 शिखर सम्मेलन के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अंतिम क्षणों में भेजा गया निमंत्रण अचानक ही अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के विश्लेषकों का ध्यान खींच रहा है। विशेषकर इसलिए कि इस मंच पर कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो भी मौजूद होंगे, जिनके साथ भारत के रिश्ते बीते एक वर्ष में अभूतपूर्व तनाव के दौर से गुजरे हैं।

क्या यह निमंत्रण दोनों देशों के बीच जमी बर्फ पिघलने का संकेत है? या यह केवल भारत की वैश्विक हैसियत का एक औपचारिक सम्मान भर है?

केवल मंच साझा करने से भरोसा नहीं बनता

यह पहली बार नहीं है जब भारत को G7 जैसे पश्चिमी मंचों पर आमंत्रित किया गया है। वैश्विक दक्षिण और इंडो-पैसिफिक रणनीति में भारत की भूमिका को देखते हुए पश्चिमी राष्ट्र उसे लगातार जोड़ना चाहते हैं। लेकिन इस बार खास बात यह है कि प्रधानमंत्री मोदी को अपेक्षाकृत देर से निमंत्रण मिला—और वह भी ऐसे समय में जब भारत-कनाडा रिश्तों में तीखी बयानबाजी और राजनयिक निष्कासन जैसे कदम हाल ही में सामने आए थे।

ट्रूडो सरकार द्वारा खालिस्तानी मुद्दे पर भारत पर सार्वजनिक आरोप लगाने और भारत द्वारा उसे स्पष्ट रूप से खारिज करने के बाद यह संबंध लगभग ठंडे बस्ते में चले गए थे।

रणनीतिक ज़रूरत या राजनयिक पहल?

मोदी का G7 में शामिल होना शायद कनाडा से किसी सीधी सुलह का संकेत नहीं है, बल्कि यह संकेत है कि भारत को अलग-थलग करना अब संभव नहीं। इटली जैसे मेज़बान देशों के लिए भारत को आमंत्रित करना न सिर्फ ज़रूरी बन गया है, बल्कि यह पश्चिम के लिए अपनी “Global South engagement” को विश्वसनीय दिखाने का एक ज़रिया भी है।

जहां तक कनाडा की बात है, यह निमंत्रण उसे यह याद दिलाने जैसा है कि भारत की अनदेखी उसकी अंतरराष्ट्रीय छवि को कमजोर कर सकती है। पर इसका मतलब यह नहीं कि भारत इस मंच पर ट्रूडो से कोई औपचारिक बातचीत करने वाला है।

भारत की रणनीति में कोई बदलाव नहीं

भारत की ओर से अब तक जो रुख सामने आया है, वह स्पष्ट करता है कि कनाडा को पहले अपने भीतर खालिस्तानी गतिविधियों पर ठोस कार्रवाई करनी होगी। ऐसे में यह मंच केवल एक अवसर हो सकता है—औपचारिकता निभाने का, न कि विश्वास बहाली का।

G7 में प्रधानमंत्री मोदी की उपस्थिति भारत की बढ़ती वैश्विक स्वीकार्यता का प्रतीक है, न कि कनाडा से संबंध सुधार की पहल का। हालांकि, यह साझा मंच दोनों देशों को एक बार फिर सोचने का मौका जरूर देगा कि क्या अब वक्त आ गया है कि व्यक्तिगत मतभेदों को पीछे छोड़कर व्यापक वैश्विक हितों को प्राथमिकता दी जाए। thaw की शुरुआत अक्सर ऐसे ही अनौपचारिक मंचों से होती है—धीरे, लेकिन निर्णायक अंदाज़ में।

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