सीएनएन सेंट्रल न्यूज़ एंड नेटवर्क–आईटीडीसी इंडिया ईप्रेस /आईटीडीसी न्यूज़ भोपाल: भारत दुनिया में सबसे बड़ी छात्र आबादी वाला देश है. ऑल इंडिया सर्वे ऑन हायर एजुकेशन (AISHE) के आंकड़ों के मुताबिक, पिछले 10 सालों में ये तादाद कम से कम 28% बढ़ी है. इंडिया जैसी डाइवर्स कंट्री में छात्रओं की बढ़ती संख्या के साथ एक और परेशानी सामने आई है. डेटा दिखाता है कि पिछले कुछ सालों में 75% से ज्यादा स्टूडेंट्स ने मॉडरेट से लेकर सीवियर डिप्रेशन के लक्षणों को रिपोर्ट किया है |
स्टूडेंट्स में टेंशन की वजह
कैरियर को लेकर अनिश्चितता
कई यंग स्टूडेंस के करियर की उम्मीदे उनके तनाव में बहुत बड़ा योगदान करती हैं. एंट्री लेवल की नौकरियों के लिए साल दर साल बढ़ते कॉम्पिटीशन के साथ, इसके आसपास की अनिश्चितता उन्हें जरूरत से ज्यादा प्रेशर लेने के लिए फोर्स कर सकती है, जो लॉन्ग टर्म में परेशानियों की वजह बन सकता है |
- हालात का सामना न कर पाना
कई छात्र जो कॉलेज में आते हैं, उन्हें पहली बार आजादी से जिंदगी जीने का मौका मिलता है. इसका मतलब है कि स्ट्रेसफुल सिचुएशन का सामना करते वक्त उनके पास परिवार और दोस्तों का ट्रेडिशनल सपोर्ट सिस्टम नहीं होती है. इसका नतीजा ये होता है कि वो शराब पीने, ड्रग्स लेने और सोशल मीडिया जैसी चीजों के आदी हो जाते हैं, क्योंकि उन्हें ये पता नहीं होता है कि हालात का सामना कैसे किया जाए |
लैंसेट के एक स्टडी से पता चला है कि पिछले 15 सालों में 21 साल से कम उम्र की पीने वाली आबादी का प्रतिशत 2% से बढ़कर 14% से ज्यादा हो गया है. इसी तरह पिछले दो सालों में यंग एडल्ट के लिए स्क्रीन टाइम में 75% से ज्यादा का इजाफा हुआ है. हालांकि ये ये तरीके उन्हें फौरी तौर पर राहत दे सकते हैं, लेकिन वो लॉन्ग टर्म में नुकसानदेह साबित हो सकते हैं |
- मेंटल हेल्थ से जुड़ा कलंक
भारत में अक्सर मेंटल हेल्थ से जुड़ी परेशानियों को अच्छी नजर से नहीं देखा जाता है. कई छात्रों को अपने सामने आने वाली किसी भी समस्या – जैसे पढ़ाई से जुड़ी, निजी परेशानी या किसी और दिक्कतों के बारे में बोलने का डर लगता है, क्योंकि उन्हें लगता है कि अगर वो कुछ कहेंगे तो उन्हें जज किया जाएगा. यूनिसेफ (UNICEF) के एक सर्वे के मुताबिक भारत में 15 से 24 साल के एज ग्रुप के सिर्फ 41 फीसदी युवाओं ने कहा कि मेंटल हेल्थ प्रॉब्लम्स के लिए सपोर्ट हासिल करना अच्छा है, जबकि 21 अन्य देशों में ये आंकड़ा औसतन 83 फीसदी है |
स्टूडेंड की मदद कैसे की जा सकती है?
भारत के महशूर क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट डॉ. जिनी के गोपीनाथ (Dr. Jini K Gopinath) ने बताया कि मानसिक तनाव का सामना करने वाले छात्रों की मदद कैसे करनी चाहिए |
- पीयर सपोर्ट प्रोग्राम (Peer Support Programs)
मेंटल हेल्थ से जुड़ा कलंक दूर करने का पहला कदम सार्वजनिक स्थानों पर जागरूकता पैदा करना है. ये टीचर और स्टूडेंट्स को शामिल करने वाला पीयर सपोर्ट प्रोग्राम के जरिए किया जा सकता है. इस तरह छात्र अपनी परेशानियों को बयां करने में कंफर्टेबल महसूस कर सकते हैं और संस्थानों को अपने छात्रों पर नजर रखने की इजाजत दे सकते हैं |
- टीचर्स को सेंसिटिव बनाएं (Sensitization for Faculty)
फैकल्टी और स्टाफ के बीच संवेदनशीलता और समझ को बढ़ावा देने से मुश्किल में फंसे छात्रों की पहचान करना आसान हो जाता है और एक सुरक्षित वातावरण बनाने में मदद मिलती है. टीचर्स के लिए रेग्युलर ट्रेनिंग इस बात को सुनिश्चित कर सकता है कि वो छात्रों की बदलती परिस्थितियों को समझते हैं, टेंशन के साइन की पहचान करना सीखते हैं और जरूरी सपोर्ट देते हैं |
- मेंटल हेल्थ प्रोफेशनल तक पहुंच (Professional Help)
स्टू़डेंट्स को अपनी परेशानियों को बयां करने के लिए सेफ स्पेस तैयार किया जाए जहां उनको कोई जज न करे. कॉलेज के छात्रों को उनके प्लेसमेंट में भी मदद करने के लिए करियर काउंस्लिंग या प्रोफेशन हेल्प दी जा सकती है |
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