भारत का ग्रीन बॉन्ड बाजार 2025 में ₹50,000 करोड़ तक उछल चुका है, जो खासकर सौर और पवन परियोजनाओं को फंड कर रहा है। यह आंकड़ा भारत की दिशा में एक सकारात्मक कदम प्रतीत होता है, लेकिन साथ ही कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि यह केवल एक चमकदार छलावा हो सकता है, जिसके भीतर असली बदलाव की कमी है। वैश्विक बाजारों में अस्थिरता, जैसे वॉल स्ट्रीट की 1% गिरावट और अमेरिका-चीन व्यापार युद्ध, ने निवेशकों को भारत की ओर आकर्षित किया है। लेकिन क्या यह रुझान भारत के टिकाऊ विकास के लिए स्थायी आधार बनेगा या सिर्फ दिखावा होगा?
- भारत की टिकाऊ अर्थव्यवस्था की दिशा में कदम
भारत ने 2030 तक 500 GW नवीकरणीय ऊर्जा लक्ष्य निर्धारित किया है, जो अत्यधिक पूंजी की मांग करता है। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए ग्रीन बॉन्ड्स एक महत्वपूर्ण साधन साबित हो रहे हैं। भारतीय कंपनियां जैसे SBI और NTPC, जो हाल ही में ग्रीन बॉन्ड जारी कर रही हैं, यह सुनिश्चित करती हैं कि सस्ता और प्रभावी वित्तपोषण मिल सके। 2024 में, भारत ने 50 GW सौर क्षमता जोड़ी, और इस प्रक्रिया में ग्रीन बॉन्ड्स ने ₹20,000 करोड़ का योगदान दिया। वैश्विक निवेशक, जो अमेरिकी टैरिफ और चीनी अस्थिरता से भाग रहे हैं, भारत को अब एक सुरक्षित ठिकाना मानते हैं। निवेशक भारत के 3.34% निम्न मुद्रास्फीति दर की तारीफ करते हैं, जो भारतीय रिज़र्व बैंक को दरों में कटौती की गुंजाइश देता है, जो स्टार्टअप्स और हरित परियोजनाओं के लिए सस्ता कर्ज ला सकता है।
- धोखाधड़ी का खतरा: ग्रीनवॉशिंग
हालांकि ग्रीन बॉन्ड्स के लाभों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, लेकिन एक महत्वपूर्ण खतरा भी है। कुछ ग्रीन बॉन्ड्स, जो “हरित” परियोजनाओं के रूप में प्रचारित होते हैं, वास्तव में कोयला-आधारित परियोजनाओं को फंड कर रहे हैं। यह ग्रीनवॉशिंग के रूप में जाना जाता है, जिसमें कंपनियां अपने पर्यावरणीय प्रभाव को बढ़ाने के बजाय इसे छिपाने का प्रयास करती हैं। 2024 में, एक मुंबई स्थित फर्म पर आरोप लगे कि उसने ग्रीन बॉन्ड फंड्स का दुरुपयोग किया। पर्यावरण कार्यकर्ताओं का कहना है कि बिना सख्त ऑडिट और निगरानी के, यह बाजार धोखाधड़ी का अड्डा बन सकता है। यूरोप में 2023 में ग्रीनवॉशिंग के घोटालों ने निवेशकों का भरोसा तोड़ा था, और अब भारत में भी इस पर ध्यान देना अत्यंत आवश्यक है।
- भारत में नियामक ढाँचा और पारदर्शिता की आवश्यकता
भारत में ग्रीन बॉन्ड्स के लिए वर्तमान नियामक ढाँचा पर्याप्त नहीं है। 2023 में SEBI द्वारा जारी किए गए नियमों की आलोचना की जा रही है क्योंकि वे ग्रीनवॉशिंग को रोकने के लिए पर्याप्त प्रभावी नहीं हैं। इसके अलावा, बुनियादी ढाँचे की कमी भी एक समस्या है—ग्रामीण क्षेत्रों में ग्रिड कनेक्शन की कमी के कारण सौर परियोजनाएं प्रभावित हो रही हैं। इसके परिणामस्वरूप, निवेशकों का भरोसा कम हो सकता है, और ग्रीन बॉन्ड्स की प्रभावशीलता भी सवालों के घेरे में आ सकती है।
- हल: पारदर्शिता और सख्त निगरानी
ग्रीन बॉन्ड्स के प्रभाव का मूल्यांकन करने के लिए पारदर्शिता आवश्यक है। प्रत्येक ग्रीन बॉन्ड के पर्यावरणीय प्रभाव—जैसे कि कार्बन उत्सर्जन में कमी—को पब्लिक डेटाबेस में दर्ज किया जाना चाहिए। तीसरे पक्ष द्वारा ऑडिट को अनिवार्य बनाना, जैसा कि यूरोप में किया गया है, भारत के लिए भी एक प्रभावी उपाय हो सकता है। इसके अलावा, यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि ग्रीन बॉन्ड्स का फंड केवल शुद्ध हरित परियोजनाओं जैसे सौर और पवन ऊर्जा में ही निवेश किया जाए, न कि हाइब्रिड परियोजनाओं में। टियर-II शहरों में मिनी-ग्रिड्स को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है, जैसा कि तमिलनाडु ने 2024 में किया।
- भारत का ग्रीन क्रेडिट सिस्टम
भारत को वैश्विक निवेशकों को आकर्षित करने के लिए एक ग्रीन क्रेडिट सिस्टम लाने की आवश्यकता है, जैसा कि जापान ने किया है। इससे निवेशकों का विश्वास मजबूत होगा, और भारत में ग्रीन बॉन्ड्स की गुणवत्ता में सुधार होगा। यदि भारत ने इस अवसर का सही उपयोग किया, तो ग्रीन बॉन्ड्स सिर्फ कागज पर नहीं, बल्कि धरातल पर भी टिकाऊ बदलाव का हिस्सा बन सकते हैं।
- निष्कर्ष
भारत को ग्रीन बॉन्ड्स के जरिए टिकाऊ विकास की राह पकड़नी चाहिए, लेकिन इसके लिए पारदर्शिता और सख्त निगरानी जरूरी है। अगर नियामक ढाँचा मजबूत किया जाता है और पारदर्शिता सुनिश्चित की जाती है, तो यह भारत को एक वैश्विक पर्यावरणीय नेता बना सकता है। ग्रीन बॉन्ड्स के माध्यम से भारत की अर्थव्यवस्था को हरित दिशा में मोड़ा जा सकता है, लेकिन इसके लिए ईमानदारी और मेहनत की जरूरत है। भारत का हरित भविष्य निश्चित रूप से संभव है—यह उस दिशा और प्रतिबद्धता पर निर्भर करेगा, जो हम अभी से दिखाते हैं।
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