भारत की आर्थिक स्थिति पर एक नया आंकड़ा गंभीर सोच की मांग करता है। वित्त वर्ष 2024 के अंत तक देश का बाहरी ऋण बढ़कर 717.9 अरब डॉलर तक पहुंच गया है। यह न केवल आंकड़ों की दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि इसके सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक प्रभाव भी दूरगामी हो सकते हैं।
एक उभरती हुई अर्थव्यवस्था के रूप में भारत ने अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों और बाजारों से ऋण लेकर अपने बुनियादी ढांचे, ऊर्जा, स्वास्थ्य और रक्षा जैसे क्षेत्रों में तेजी से निवेश किया है। लेकिन लगातार बढ़ते वैश्विक ऋण का बोझ अब आत्मनिर्भरता और वित्तीय स्थिरता को चुनौती देने लगा है।
इस आंकड़े में सबसे चिंताजनक पहलू है अल्पकालिक ऋण का अनुपात, जो कुल ऋण का लगभग 18.7% है। इसका अर्थ है कि भारत को एक बड़ी राशि अगले एक वर्ष के भीतर चुकानी होगी, जो मुद्रा भंडार पर सीधा दबाव बना सकती है। यदि वैश्विक वित्तीय बाजारों में कोई अस्थिरता आती है, तो इसका असर हमारे देश पर बहुत तीव्र हो सकता है।
सरकार ने अभी तक इस बढ़ते ऋण के कारणों में विदेशी निवेश की गिरावट, निर्यात में अपेक्षित वृद्धि न होना और कच्चे तेल जैसे आयातित उत्पादों पर निर्भरता को प्रमुख माना है। इसके अलावा, डॉलर की मजबूती और ब्याज दरों में वैश्विक बढ़ोतरी ने ऋण चुकाने की लागत को और अधिक जटिल बना दिया है।
हालांकि भारत की विदेशी मुद्रा स्थिति अब भी नियंत्रण में है और सरकार ने दीर्घकालिक रणनीतियों के तहत ऋण का उपयोग अवसंरचना निर्माण में किया है, फिर भी यह अनिवार्य है कि हम ऋण-आधारित विकास की सीमा को पहचानें।
हमें निर्यात को बढ़ावा देने, सेवा क्षेत्र की प्रतिस्पर्धा को मजबूत करने और देश के भीतर उत्पादन क्षमता को बढ़ाने जैसे उपायों को प्राथमिकता देनी होगी, ताकि भविष्य में बाहरी ऋण की आवश्यकता कम हो सके।
भारत जैसे विशाल और संभावनाओं से भरे देश के लिए यह आवश्यक है कि वह अपनी आर्थिक स्वतंत्रता और भविष्य को ऋण के बोझ से मुक्त रखने की दिशा में ठोस कदम उठाए। यह समय केवल आंकड़ों को पढ़ने का नहीं, बल्कि उन पर कार्रवाई करने का है।
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