भारत सरकार की हालिया रिपोर्ट में यह तथ्य सामने आया है कि देश में कुल बैंक खातों में से 39.2 प्रतिशत खातों की मालिक महिलाएं हैं। यह आंकड़ा पहली नजर में सराहनीय प्रतीत होता है और यह दर्शाता है कि भारत में वित्तीय समावेशन की दिशा में ठोस प्रयास हुए हैं। विशेषकर जनधन योजना जैसी पहलों ने देश के दूरदराज़ इलाकों में रहने वाली महिलाओं को भी बैंकिंग प्रणाली से जोड़ने में मदद की है।

हालांकि यह आंकड़ा जितना सकारात्मक दिखाई देता है, उतना ही यह हमें सोचने पर मजबूर भी करता है कि क्या मात्र खाता खुलवा देना ही महिलाओं के सशक्तिकरण की निशानी है? असल सवाल यह है कि इन खातों का संचालन कौन कर रहा है? क्या महिलाएं इन खातों का सक्रिय उपयोग कर रही हैं? या फिर यह अधिकार महज़ कागज़ों तक सीमित है?

ग्रामीण भारत में कई ऐसे उदाहरण मिलते हैं, जहाँ महिलाओं के नाम पर खाते तो खोल दिए गए, लेकिन उनका परिचालन अब भी परिवार के पुरुष सदस्यों के हाथ में है। ऐसे में महिला की आर्थिक स्वतंत्रता और निर्णय लेने की क्षमता सवालों के घेरे में आ जाती है।

वास्तविक परिवर्तन तभी आएगा जब महिलाएं न केवल खाताधारक हों, बल्कि अपने वित्तीय फैसले भी स्वयं ले सकें। इसके लिए ज़रूरी है कि उन्हें वित्तीय साक्षरता दी जाए, तकनीकी सुविधा उपलब्ध कराई जाए और सामाजिक तौर पर उन्हें स्वतंत्र सोचने और निर्णय लेने के लिए प्रोत्साहित किया जाए।

भारत की आधी आबादी जब पूरी तरह से आर्थिक रूप से सक्षम होगी, तभी हम एक समावेशी और स्थायी विकास की कल्पना कर सकेंगे। बैंक खातों में बढ़ती महिलाओं की भागीदारी एक अच्छा संकेत है, लेकिन यह केवल शुरुआत है। अब समय है इसे व्यवहारिक सशक्तिकरण में बदलने का – जहाँ महिला स्वयं अपनी आर्थिक यात्रा की राह तय करे।

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