सीएनएन सेंट्रल न्यूज़ एंड नेटवर्क–आईटीडीसी इंडिया ईप्रेस /आईटीडीसी न्यूज़ भोपाल: बांग्लादेश में क्रिकेट में हिंदू खिलाड़ियों के साथ भेदभाव का आरोप फिर से उभर कर सामने आया है। आजादी के बाद से लेकर अब तक बांग्लादेश से सिर्फ 11 हिंदू खिलाड़ियों ने इंटरनेशनल क्रिकेट खेला है, जबकि वहां हिंदुओं की जनसंख्या 9% है। 1986 में इंटरनेशनल क्रिकेट शुरू करने वाले बांग्लादेश ने पहली बार 2000 में किसी हिंदू खिलाड़ी, रंजन दास, को टेस्ट मैच में खिलाया, लेकिन इसके बाद वे दोबारा टीम में नहीं आ सके। हाल के 10 सालों में केवल 6 हिंदू खिलाड़ियों को टीम में मौका मिला है, और यह तब संभव हुआ जब शेख हसीन की सरकार 2014 में आई।

1971 से पहले पाकिस्तान में बंगाली क्रिकेटर्स के साथ भेदभाव

1971 से पहले, जब बांग्लादेश पाकिस्तान का हिस्सा था, तब वहां के बंगाली क्रिकेटर्स के साथ भी भेदभाव होता था। पाकिस्तान की टीम में पश्चिमी पाकिस्तान (अब पाकिस्तान) के खिलाड़ियों का बोलबाला था, और बंगालियों को कमजोर मानकर टीम में मौका नहीं दिया जाता था। 1970 में पहली बार रकीबुल हसन को टीम में चुना गया, लेकिन वे प्लेइंग-11 का हिस्सा नहीं बन पाए।

पाकिस्तान में गैर-मुस्लिम खिलाड़ियों के साथ भेदभाव

पाकिस्तान में भी गैर-मुस्लिम खिलाड़ियों के साथ भेदभाव की घटनाएं सामने आई हैं। अब तक पाकिस्तान से सिर्फ 2 हिंदू और 5 ईसाई खिलाड़ी ही इंटरनेशनल क्रिकेट खेल पाए हैं। दानिश कनेरिया और अनिल दलपत जैसे हिंदू खिलाड़ी पाकिस्तान का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं, लेकिन उनकी संख्या बहुत कम है।

साउथ अफ्रीका में रंगभेद की कहानी

साउथ अफ्रीका में भी लंबे समय तक रंगभेद की नीति लागू थी, जिसके कारण अश्वेत खिलाड़ियों को टीम में शामिल नहीं किया जाता था। 1970 में इंग्लैंड के साथ खेलने से इनकार करने के बाद, साउथ अफ्रीका पर 21 साल का बैन लगाया गया था। 1991 में वापसी के बाद, साउथ अफ्रीका में अश्वेत खिलाड़ियों के लिए रिजर्वेशन लागू किया गया।

निष्कर्ष

क्रिकेट में नस्ल और धर्म के आधार पर भेदभाव कोई नई बात नहीं है। चाहे पाकिस्तान हो या बांग्लादेश, गैर-मुस्लिम और बंगाली खिलाड़ियों को चुनौतियों का सामना करना पड़ा है। इसी तरह साउथ अफ्रीका में भी रंगभेद की नीति ने क्रिकेट को लंबे समय तक प्रभावित किया।