जब पारदर्शिता एक प्रदर्शन बन जाए और चुनावी सुधार एक मृगतृष्णा, तब पत्रकारिता लोकतंत्र की अंतिम सच्ची प्रहरी बन जाती है। पूनम अग्रवाल की किताब “इंडिया इंक्ड: वर्ल्ड्स लार्जेस्ट डेमोक्रेसी में चुनाव” महज़ एक खुलासा नहीं, बल्कि भारत की राजनीतिक फंडिंग और लोकतांत्रिक ढांचे की गहन पड़ताल है।

इस पुस्तक का मूल विषय है—इलेक्टोरल बॉन्ड्स। इन्हें जनता के सामने एक स्वच्छ और गुप्त राजनीतिक फंडिंग व्यवस्था के रूप में पेश किया गया था, लेकिन अग्रवाल ने इस कथानक को परत दर परत उजागर किया। वह दिखाती हैं कि कैसे इन बॉन्ड्स में छिपे अल्फान्यूमेरिक पहचान चिन्ह, जिन्हें केवल अल्ट्रावायलेट लाइट में देखा जा सकता है, दानकर्ता और प्राप्तकर्ता—दोनों को दान की पहचान की सुविधा देते हैं। पारदर्शिता के नाम पर यह एक गुप्त संधि बन गई।

बीजेपी इस पूरे मामले के केंद्र में है। शुरुआत में इन पहचान चिन्हों के अस्तित्व से इनकार करने के बाद पार्टी ने पलटी मारी और इन्हीं “ट्रेसिबिलिटी” फीचर्स का श्रेय खुद को देने लगी। ये विरोधाभास अचानक नहीं हैं—बल्कि रणनीतिक बदलाव हैं, जिन्हें अग्रवाल एक सूक्ष्म फॉरेंसिक विश्लेषक की तरह ट्रैक करती हैं—आरबीआई की आंतरिक आपत्तियों से लेकर सुप्रीम कोर्ट के उस ऐतिहासिक आदेश तक, जिसने एसबीआई और चुनाव आयोग को दान संबंधी जानकारी उजागर करने पर मजबूर कर दिया।

लेकिन यह किताब सिर्फ एक खुलासे की कहानी नहीं है। यह भारतीय चुनावी ढांचे की व्यापक पड़ताल करती है। 1950 के दशक में सुकुमार सेन के काम से लेकर टी.एन. शेषन की संस्थागत विरासत तक, अग्रवाल चुनाव आयोग के विकास की गहराई से समीक्षा करती हैं—हालांकि, वह अशोक लवासा जैसे हाल के महत्वपूर्ण इस्तीफों पर मौन रहती हैं।

वह इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों (EVMs) पर संतुलित दृष्टिकोण अपनाती हैं—उनके फायदे स्वीकार करती हैं, लेकिन तकनीकी छेड़छाड़ की संभावनाओं को भी नज़रअंदाज़ नहीं करतीं।

इंडिया इंक्ड की विशिष्टता यह है कि यह मतदान केंद्रों से परे जाकर भी सवाल उठाती है। यह प्रेस की स्वतंत्रता पर आलोचनात्मक दृष्टि डालती है—कहती है कि कैसे मीडिया समेकन और मालिकों की व्यावसायिक हितों से प्रभावित संपादकीय नीतियाँ लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को कमजोर कर रही हैं। इस रूप में अग्रवाल केवल एक पर्यवेक्षक नहीं, बल्कि व्यवस्था में आत्मनिरीक्षण की मांग करने वाली आवाज़ बनकर उभरती हैं।

यह किताब कठिन सवालों से नहीं कतराती: “एक राष्ट्र एक चुनाव” जैसे विचारों की व्यावहारिकता और मंशा पर सवाल उठाती है। हालांकि लेखक की राजनीतिक सोच स्पष्ट है, फिर भी तथ्यों की प्रस्तुति कभी पक्षपाती नहीं होती।

शोध अत्यंत विस्तृत है, विश्लेषण गंभीर, और निष्कर्ष बेधड़क।

इंडिया इंक्ड कोई हल नहीं देती—बल्कि सतर्कता की आवश्यकता पर ज़ोर देती है। इस दौर में जब जवाबदेही बनावटी और कथानक पूर्वनिर्धारित होते जा रहे हैं, यह किताब याद दिलाती है कि पत्रकारिता को क्या करना चाहिए—जांचना, जूझना, और जगाना।

यह सिर्फ एक किताब नहीं—राज्य और नागरिक दोनों के सामने रखा गया आईना है।

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