मनुष्य का जीवन केवल उसकी इच्छाओं या कल्पनाओं पर आधारित नहीं होता, बल्कि उसकी प्रवृत्तियाँ, संस्कार और कर्म मिलकर उसके भविष्य का निर्माण करते हैं। यह प्रवृत्तियाँ धीरे-धीरे उसके स्वभाव का हिस्सा बन जाती हैं और अवचेतन मन उन्हें जीवन की दिशा में बदल देता है। यही कारण है कि हमारी प्रत्येक सोच, क्रिया और प्रतिक्रिया भविष्य के बीज होते हैं।
अवचेतन मन और जीवन की दिशा
मनुष्य का अवचेतन मन जागते और सोते, हर समय सक्रिय रहता है। यह सूक्ष्म स्तर पर कार्य करते हुए हमारी प्रवृत्तियों को स्वभाव और संस्कारों में बदल देता है। यदि यह प्रवृत्तियाँ सकारात्मक, संतुलित और आत्मशासित हों, तो जीवन प्रगति की दिशा में चलता है। लेकिन यदि ये नकारात्मक, आलसी या विकृत हो जाएँ, तो व्यक्ति भटक जाता है और उसका जीवन कष्टमय हो जाता है।
प्रवृत्ति से व्यवहार तक का मार्ग
हमारे भीतर की प्रवृत्ति — बार-बार दोहराए गए विचार और कार्य — हमारे स्वभाव में ढलती है। स्वभाव हमारे व्यवहार में परिवर्तित होता है और व्यवहार अंततः हमारे भविष्य का निर्धारण करता है।
यह क्रम कुछ इस प्रकार है:
प्रवृत्ति → स्वभाव → व्यवहार → संस्कार → भविष्य
इसलिए यदि हमें अपना भविष्य सुधारना है, तो प्रवृत्तियों को शुद्ध करना होगा। यह कार्य सत्संग, स्वाध्याय, आत्मनिरीक्षण और सद्गुरु के निर्देशन से संभव है।
कर्म और उसका प्रभाव
भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं –
“गहनो कर्मणो गतिः”
(कर्म की गति अत्यंत गूढ़ होती है।)
मनुष्य के जीवन में हर परिस्थिति, हर सफलता और असफलता, कर्म के नियम से संचालित होती है। हम जैसा कर्म करते हैं, वैसा ही फल प्राप्त होता है। यह फल समय के साथ ही सामने आता है, लेकिन निश्चित रूप से आता है।
इसलिए कहा गया है —
“जैसे बछड़ा हजारों गायों में अपनी मां को पहचान लेता है, वैसे ही कर्मफल अपने कर्ता को खोज लेता है।”
प्रयास और उद्यम का महत्व
केवल कल्पना या इच्छा से जीवन नहीं बदलता।
“उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः॥”
(अर्थात् केवल कल्पना करने से कार्य सिद्ध नहीं होते। सोए हुए सिंह के मुख में मृग स्वयं नहीं आते।)
इसलिए कर्मशीलता ही सफलता की कुंजी है। जो व्यक्ति परिश्रम और आत्मसंकल्प के साथ आगे बढ़ता है, वह जीवन में अवश्य सफलता प्राप्त करता है।
जीवन में सत्संग और सद्विचार की आवश्यकता
बुरी प्रवृत्तियाँ बहुत जल्दी प्रभावी होती हैं। उन्हें रोकने के लिए —
सत्संग का आश्रय लेना
श्रेष्ठ साहित्य का अध्ययन
सद्विचार और आत्मचिंतन
गुरुजनों का मार्गदर्शन
सदाचरण और संयम का पालन
आवश्यक है।
बुरी संगति, बुरा साहित्य, बुरे विचार — ये सब मनुष्य को अवचेतन स्तर पर भ्रष्ट करते हैं और उसे पतन की ओर ले जाते हैं। इसलिए जागरूकता और सजगता से ही जीवन में उजाला संभव है।
निष्कर्ष:
अन्तस की प्रतिध्वनि ही आपका मार्गदर्शक है
आपका भविष्य किसी और के हाथ में नहीं, बल्कि आपके अंतर्मन की उस प्रतिध्वनि में है, जो आपकी प्रवृत्तियों के माध्यम से आपको दिशा देती है। यदि आप आत्मनियंत्रण, संयम और सद्गुणों को अपनाते हैं, तो आपका अवचेतन भी उन्हीं को संस्कार बनाकर जीवन में उतार देता है।
इसलिए सजग रहें, जागरूक रहें, और सदैव श्रेष्ठ विचारों, आचरण और संगति को अपनाएं — यही आपके जीवन का अमृत कलश है, और यही आपके भविष्य का वास्तविक निर्माण करता है।
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