हाल ही में, भारत में कार्य सप्ताह को लेकर 90 घंटे काम करने की संभावना पर बहस तेज हो गई है। यह चर्चा तब शुरू हुई जब केंद्र सरकार के कुछ मंत्रालयों में कार्य-समय के बदलाव और श्रम कानूनों के लचीलेपन पर विचार किया गया। हालांकि अभी यह केवल एक संभावित विचार के रूप में सामने आया है, लेकिन इसे लेकर समाज और विशेषज्ञों में काफी मतभेद दिखाई दे रहे हैं।
काम के घंटे और भारत की वास्तविकता
भारत जैसे देश में, जहां औद्योगिक और श्रम संरचना अभी भी विकासशील चरण में है, 90 घंटे काम करने का प्रस्ताव असंभव और असंगत लगता है। श्रम बल का एक बड़ा हिस्सा पहले ही लंबे समय तक काम करता है, खासकर असंगठित क्षेत्रों में। यदि औसतन देखा जाए, तो भारतीय श्रमिक पहले से ही सप्ताह में 48 से 60 घंटे तक काम करते हैं। ऐसे में 90 घंटे काम करने की बात कई सवाल खड़े करती है।
शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर प्रभाव:
विशेषज्ञों का कहना है कि लंबे समय तक काम करने से कर्मचारियों के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव पड़ सकता है। 90 घंटे काम करने की बात न केवल श्रमिकों की उत्पादकता को कम करेगी बल्कि इससे बर्नआउट (थकावट) और तनाव जैसे मुद्दे भी बढ़ सकते हैं।
परिवार और व्यक्तिगत जीवन का संतुलन:
भारत की सामाजिक संरचना में पारिवारिक और व्यक्तिगत जीवन का महत्व अत्यधिक है। यदि किसी कर्मचारी को हर दिन 12-15 घंटे काम करना पड़े, तो इससे उनके परिवार और व्यक्तिगत जीवन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। यह सामाजिक असंतुलन को भी जन्म दे सकता है।
आर्थिक और सामाजिक असमानता का बढ़ना:
श्रम कानूनों में बदलाव का सबसे अधिक प्रभाव निम्न और मध्यम वर्ग के श्रमिकों पर पड़ सकता है। 90 घंटे काम करने का नियम लागू होने पर कई कंपनियां इसे कर्मचारियों के शोषण का साधन बना सकती हैं।
दूसरी तरफ के तर्क
हालांकि, इसके समर्थकों का तर्क है कि 90 घंटे काम करने का यह विचार कार्यक्षमता को बढ़ाने और उत्पादन में वृद्धि करने के उद्देश्य से लाया जा सकता है। उनका मानना है कि इस प्रकार के बदलाव से भारतीय उद्योग अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धा में आ सकते हैं। साथ ही, यह मॉडल कुछ विकसित देशों में लागू है, जहां लचीले कार्य-समय के विकल्प दिए जाते हैं।
लेकिन इन तर्कों में भारत की श्रम संरचना और समाज की वास्तविकता का अभाव दिखाई देता है। विकसित देशों की कार्य परिस्थितियां और भारत की वास्तविकताएं एक-दूसरे से काफी अलग हैं।
आगे का रास्ता
ऐसे किसी भी प्रस्ताव पर विचार करने से पहले, सरकार और नीति-निर्माताओं को श्रमिकों की भलाई और भारत की सामाजिक संरचना को ध्यान में रखना होगा।
लचीले कार्य-घंटों की व्यवस्था:
यदि उत्पादन और कार्यक्षमता बढ़ाने की जरूरत है, तो कंपनियों को कर्मचारियों को लचीले कार्य-घंटे प्रदान करने चाहिए। इससे कर्मचारी अपनी जरूरतों के अनुसार काम कर सकते हैं।
स्वास्थ्य और सुरक्षा पर ध्यान:
श्रमिकों के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए नीति बनाते समय दीर्घकालिक परिणामों का आकलन करना आवश्यक है।
टेक्नोलॉजी और ऑटोमेशन का उपयोग:
उत्पादन बढ़ाने के लिए कंपनियों को श्रमिकों पर निर्भरता कम कर, टेक्नोलॉजी और ऑटोमेशन को अपनाने की दिशा में काम करना चाहिए।
निष्कर्ष
90 घंटे काम का विचार भारत के श्रम ढांचे के लिए एक कठिन कदम हो सकता है। यह न केवल सामाजिक असंतुलन और श्रमिकों के स्वास्थ्य को प्रभावित करेगा, बल्कि इससे उत्पादकता पर भी नकारात्मक असर पड़ने की संभावना है। आवश्यकता इस बात की है कि कार्यक्षमता बढ़ाने के अन्य विकल्पों पर विचार किया जाए, जो श्रमिकों और समाज दोनों के लिए हितकारी हो।
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